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________________ अधिकार के चतुर्थ पाहुड नामक कर्म-प्रकृति के आधार पर षट्खण्डागम की तथा पञ्चम ज्ञानप्रवादपूर्व के 10वें वस्तुअधिकार के अन्तर्गत तीसरे पेज्जदोसपाहुड से कषायपाहुड की रचना इई हैं जिन पर क्रमश: धवला और जयधवला टीकाएँ उपलब्ध हैं। (घ) तुलनात्मक विवरण - वर्तमान में इसके अनुपलब्ध होने से यद्यपि इसकी तुलना करना सम्भव नहीं है फिर भी प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसमें स्वसमय और परसमय की सभी प्रकार की प्ररूपणायें थीं। ग्रन्थ बहुत विशाल था तथा 14 पूर्वो के कारण इस ग्रन्थ का बहुत महत्त्व था। पूर्ववेत्ताओं के क्रमश: ह्रास होने से यह ग्रन्थ लुप्त हो गया। उभय परम्पराओं में इसके क्रमशः क्षीण होने की परम्परा के उल्लेख उपलब्ध हैं। स्थानाङ्ग को छोड़कर उभय-परम्पराओं में इसके 5 प्रमुख भेद बतलाए गए हैं। दिगम्बर परम्परा में तृतीय स्थान प्रथमानुयोग का है और चतुर्थ स्थान पूर्वगत का है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में तृतीय स्थान पूर्वगत का है और चतुर्थ स्थान अनुयोग का। दिग० अङ्गप्रज्ञप्ति की कारिका में यद्यपि 'पूर्व' का उल्लेख श्वे० की तरह अनुयोग के पहले किया है परन्तु विवेचन बाद में ही किया है। स्थानाङ्ग में चूलिका को छोड़कर 4 भेद गिनाए हैं। परिकर्म के भेदों की संख्या तथा विषयविवेचन उभयपरम्पराओं में भिन्न-भिन्न है। सूत्र के 88 भेद या अधिकार दोनों परम्पराओं ने माने हैं। परन्तु धवला में केवल चार भेदों को गिनाया है और शेष को अज्ञात कहा है। समवायाङ्ग और नन्दी में इनके 88 भेदों को गिनाया गया है। समवायाङ्ग और नन्दी में अनुयोग के दो भेद किए हैं परन्तु धवलादि में इसे प्रथमानुयोग कहा है और उसके दो भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया है। पूर्वो की संख्या दोनों ने 14 स्वीकार की है परन्तु श्वे० ने 'कल्याणप्रवाद' और 'प्राणावायप्रवाद' पूर्व को क्रमश: 'अबन्ध्य' और 'प्राणायुः' कहा है। चूलिका के 5 भेद दिगम्बरों ने किये हैं जबकि ऐसा समवायाङ्ग आदि में नहीं है / समवायाङ्ग और नन्दी में प्रथम चार पूर्वो की ही चूलिकायें मानी गई हैं। स्थानाङ्ग में दृष्टिवाद के 10 नामों का उल्लेख है तथा पूर्वो के ज्ञाताओं का भी उल्लेख मिलता है, परन्तु दृष्टिवाद के 5 भेदों का उल्लेख नहीं मिलता है। जयधवला में पूर्वो के 14 भेदों का कथन करके लिखा है कि इन 14 विद्यास्थानों की विषयप्ररूपण जानकर कर लेना चाहिए। तत्त्वार्थवार्तिक में दृष्टिवाद के 5 भेद तो गिनाए हैं परन्तु विवेचन केवल पूर्वो का ही किया है। विधिमार्गप्रपा में इसे उच्छिन्न कहकर इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा है। उपसंहार श्वेताम्बर परम्परानुसार 11 अङ्ग-ग्रन्थों के उपलब्ध संस्करण वीर नि0 सं0 980 में बलभी में हुई देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में अन्तिमरूप से लिपिबद्ध किए गए थे। श्रुतपरम्परा से प्राप्त ये ग्रन्थ अपने मूलरूप में यद्यपि पूर्ण सुरक्षित नहीं रह गए थे परन्तु इन्हें सुरक्षित रखने के उद्देश्य से जिसे जो कुछ याद था उसका सङ्कलन इस वाचना में किया गया था। स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और नन्दी में इन अङ्ग ग्रन्थों की जो विषय-वस्तु प्रतिपादित की गयी है उसका उपलब्ध सभी अङ्ग ग्रन्थों के साथ पूर्ण मेल नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि बलभीवाचना के बाद भी कुछ ग्रन्थ मूल रूप से सुरक्षित नहीं रह सके और जो सुरक्षित रहे भी उनमें भी कई संशोधन और परिवर्द्धन हो गए। दृष्टिवाद का सङ्कलन क्यों नहीं किया गया जबकि उसकी विस्तृत विषय-वस्तु समवायाङ्ग और नन्दी में उपलब्ध है। स्थानाङ्ग में भी दृष्टिवाद के कुछ सङ्केत मिलते हैं। समवायाङ्ग और नन्दी में कहीं भी उसके उच्छिन्न होने का सङ्केत नहीं है अपितु सभी अङ्गों को हिन्दुओं के वेदों की तरह नित्य बतलाया है। विधिमार्गप्रपा जो 13-14 वीं शताब्दी की रचना है उसमें अवश्य दृष्टिवाद को व्युच्छिन्न बतलाकर उसकी विषयवस्तु की चर्चा नहीं की गई है। विधिमार्गप्रपा के लेखक के समक्ष वर्तमान आगम उपलब्ध रहे हैं जिससे उसमें प्रतिपादित विषयवस्तु का उपलब्ध आगमों से प्रायः मेल बैठ जाता है। यद्यपि वह नन्दी पर आधारित है परन्तु उसमें पूर्णरूप से नन्दी का आश्रय नहीं लिया गया है। समवायाङ्ग के 100 समवायों और श्रुतावतार के सन्दर्भ में विधिमार्गप्रपा एकदम चुप है, जबकि स्थानाङ्ग के 10 स्थानों का स्पष्ट उल्लेख करता है। समवायाङ्ग और नन्दी में इन दोनों बातों का स्पष्ट उल्लेख है। इससे समवायाङ्गकी विषयवस्तु विधिमार्गप्रपाकार के समक्ष थी या नहीं, यह चिन्त्य दिगम्बर परम्परानुसार वीर नि0 सं0 683 के बाद श्रुत-परम्परा का उच्छेद हो गया परन्तु दृष्टिवाद के अंशांश के ज्ञाताओं के द्वारा रचित षटखण्डागम और कषायपाहुड ये दो ग्रन्थ लिखे गये। पश्चात् शक सं0 700 में उन पर क्रमश: धवला और जयधवला टीकायें लिखी गयीं। इन ग्रन्थों में तथा इनके पूर्ववर्ती ग्रन्थ तत्त्वार्थवार्तिक में द्वादश अङ्गों की जो विषयवस्तु मिलती है, उससे उपलब्ध आगमों का पूर्ण मेल नहीं है। कई स्थलों पर तो श्वेताम्बर अङ्गों में बतलाई गई 325
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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