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________________ चूर्णियाँ जैनागमों पर प्राकृत अथवा संस्कृत मिश्रित प्राकृत में गद्यात्मक शैली में जो व्याख्यायें लिखीं गईं उन्हें चूर्णियाँ कहते हैं। इस तरह की चूर्णियाँ आगमेतर साहित्य पर भी लिखी गई हैं। चूर्णिकार जिनदासगणिमहत्तर (वि.सं. 650750) परम्परा से निशीथविशेषचूर्णि, नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि तथा सूत्रकृताङ्गचूर्णि के कर्ता माने जाते हैं। इनके जीवन से सम्बन्धित विशेष जानकारी नहीं मिलती है। जैनागमों पर लिखी गई प्रमुख चूर्णियाँ निम्न हैं - 1. आचाराङ्गचूर्ण (नियुक्त्यनुसारी), 2. सूत्रकृताङ्गचूर्ण (निर्युक्त्यनुसारी संस्कृत प्रयोग) अपेक्षाकृत अधिक हैं, 3. व्याख्याज्ञप्ति या भगवतीचूर्णि, 4. जीवाभिगमचूर्णि, 5. निशीथचूर्णि (इस पर दो चूर्णियाँ हैं परन्तु उपलब्ध एक ही है, निशीथविशेषचूर्णि कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है), 6. महानिशीथचूर्णि, 7. व्यवहारचूर्णि, 8. दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि, 9. बृहत्कल्पचूर्णि (दो चूर्णियाँ हैं), 10. पञ्चकल्पचूर्णि, 11. ओघनियुक्तिचूर्णि, 12. जीतकल्पचूर्णि (इस पर दो चूर्णियाँ हैं परन्तु उपलब्ध एक ही है। उपलब्ध चूर्णि के कर्ता सिद्धसेनसूरि हैं। यह सम्पूर्ण प्राकृत में है), 13. उत्तराध्ययनचूर्णि, 14. आवश्यकचूर्णि (इसमें ऐतिहासिक व्यक्तियों के कथानकों का संग्रह है), 15. दशवैकालिकचूर्णि (इस पर दो चूर्णियाँ हैं। एक अगस्त्यसिंह की है और दूसरी जिनदासकृत है), 17. नन्दीचूर्णि ( यह संक्षिप्त और प्राकृत भाषा प्रधान है। मुख्यरूप से ज्ञान-स्वरूप की चर्चा है), 18. अनुयोगद्वारचूर्णि (इस पर दो चूर्णियाँ हैं। एक के कर्ता भाष्यकार जिनभद्रगणि हैं और दूसरे के चूर्णिकार जिनदासगणि), 19. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णि आदि। संस्कृत टीकायें __ संस्कृत के प्रभाव को देखते हुए जैनाचार्यों ने जैनागमों पर कई नामों से संस्कृत व्याख्यायें लिखीं हैं। इनका भी आगमिक व्याख्या साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत व्याख्याकारों ने नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों का उपयोग करते हुए नये-नये तर्कों के सिद्धान्त पक्ष की पुष्टि की है। जैनागम पर सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति है। टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेतालशान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि प्रसिद्ध हैं। कुछ अज्ञात टीकाकार भी हैं। ज्ञातनामा टीकाकार भी बहुत हैं। लोकभाषारचित टीकायें -- हिन्दी, गुजराती, अङ्ग्रेजी आदि लोक-भाषाओं में भी विपुल टीकायें लिखी गई हैं। समीक्षात्मक शोध-प्रबन्धों के द्वारा भी आगमों के रहस्य को इन लोक भाषाओं में उद्घाटित किया गया है। इनका भी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस तरह जैनागम और उसका व्याख्या साहित्य न केवल जैनों की अमूल्य निधि है अपितु भारतीय सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि की भी अमूल्य निधि है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी इनका बड़ा महत्त्व है। यदि आज यह साहित्य हमारे पास उपलब्ध न होता तो हम अन्धकार में पड़े रहते। सन्दर्भ-ग्रन्थ 1. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 1, पृ. 31. 2. समवायाङ्गसूत्र, भाग 1, पृ. 136. 3. प्राकृत साहित्य बृहद् इतिहास, भाग 1, पृ. 44 4. वही, 5. नन्दीसूत्र 43; तत्त्वार्थवार्तिक 1,20,13; आवश्यकनियुक्ति, गाथा 92 6. षट्खण्डागम -- यह 18 भागों में प्रकाशित है। इसके जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बन्धसामित्तविचय, वेदना, वग्गणा और महाबन्ध ये 6 खण्ड हैं, अतः इसे षट्खण्डागम कहते हैं। इसका उद्गम स्रोत दृष्टिवाद के द्वितीय पूर्व आग्रायणीय के चयनलब्धि नामक 5वें अधिकार के चौथे पाहुड कर्मप्रकृति को माना जाता है। लेखक हैं आचार्य धरसेन / इस पर आचार्य वीरसेन ने धवलाटीका लिखी है। महाबन्ध नामक छठा खण्ड अपनी विशालता के कारण पृथक् ग्रन्थ के रूप में माना जाता है। 7. कषायपाहुड -- यह 18 भागों में प्रकाशित है। इसमें राग (पेज्ज) और द्वेष का निरूपण हैं। रचनाकार है आचार्य गुणधर जो दृष्टिवाद के 5वें ज्ञानप्रवाद पूर्व के 10वें वस्तु के उसरे कषायप्राभृत के पारगामी थे। यही अंश इसका उद्गम स्रोत है। इस पर जयधवलाटीका आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने लिखी है। आचार्य यतिवृषभ ने चर्णि लिखी है। 305
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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