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________________ से सम्बन्धित हैं तथा अष्टम वर्ग राजा श्रेणिक की काली आदि 10 भार्याओं की कथा से सम्बन्धित है। 9. अनुत्तरोपपातिकदशा - (विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि के वैमानिक देव अनुत्तर अर्थात् श्रेष्ठ कहलाते हैं जो उपपाद जन्म से अनुत्तरों में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुत्तरोपपातिक कहते हैं। ऐसे व्यक्तियों का इसमें वर्णन है। इसमें तीन वर्ग हैं जिनमें 33 अध्ययन हैं। 10. प्रश्नव्याकरण -- इसमें प्रश्नों के उत्तर (व्याकरण) नहीं है अपितु पाँच आस्रवद्वार (हिंसादि) और पाँच संवरद्वार (अहिंसादि) रूप 10 अध्ययन हैं। 11. विपाकसूत्र -- विपाक का अर्थ है -'कर्मफल'। पापरूप और पुण्यरूप कर्मों के फलों का कथन है। दो श्रुतस्कन्ध हैं जिनमें 10+10 अध्ययन हैं। 12. दृष्टिवाद -- यह ग्रन्थ लुप्त हो गया है। इसमें स्वसमय और परसमय की सभी प्ररूपणायें थीं। यह 5 भागों में विभक्त था -परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। यह विशालकाय ग्रन्थ रहा है। पूर्वो के कारण इसका अधिक महत्त्व था। दिगम्बर आगम ग्रन्थों ( षटखण्डागम और कषायपाहुड) का उद्गम स्रोत यही ग्रन्थ माना गया है। 11 अङ्ग से पृथक् इसका उल्लेख दोनों सम्प्रदायों में मिलता है। अङ्गबाह्य -- इन्हें पहले प्रकीर्णक कहा जाता था। निरयावलिया में इन्हें उपाङ्ग भी कहा गया है परन्तु अब ये दोनों नाम दूसरे अर्थ में रूढ़ हो गये हैं। उपाङ्ग ग्रन्थ -- इनकी रचना स्थविरों ने की है। इनका अङ्ग के साथ सम्बन्ध नहीं है। ये स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। उपाङ्ग शब्द का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। 1. औपपातिक -- इसमें 43 सूत्र हैं। चम्पानगरी के वर्णन से ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। इसका सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से महत्त्व है। इसमें मनुष्यों के भव सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने अनेक विषयों का प्रतिपादन किया है। 2. राजप्रश्नीय -- इसमें 217 सूत्र हैं और दो भागों में विभक्त है। इसका प्रारम्भ अमलकल्पा नगरी के वर्णन से होता है। इसमें राजा परासी (प्रदेशी) द्वारा किये गये प्रश्नों का समाधान केशि मुनि के द्वारा किया गया है। 3. जीवाजीवाभिगम (जीवाभिगम)-- इसमें 9 प्रतिपत्ति (प्रकरण) और 272 सूत्र हैं जिनमें जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों का वर्णन है। 4. प्रज्ञापना -- इसमें 349 सूत्र हैं जिनमें प्रज्ञापना, स्थान आदि 36 पदों का वर्णन है। जैसे अङ्ग में भगवतीसूत्र बड़ा है वैसे ही उपाङ्गों में यह बड़ा है। 5. सूर्यप्रज्ञप्ति -- इसमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की स्थितियों को 108 सूत्रों में (20 पाहुडों में) विस्तार से वर्णन है। 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति -- इसमें 7 वक्षस्कार (परिच्छेद) हैं जिनमें 176 सूत्र हैं। तीसरे वक्षस्कार में भारतवर्ष और राजा भरत का वर्णन है। जम्बूद्वीप की जानकारी के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 7. चन्द्रप्रज्ञप्ति -- इसकी विषयवस्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। इसमें 20 प्राभृत है।। 8. निरयावलिया -- इसमें 5 उपाङ्ग समाविष्ट हैं - 1. निरयावलिया अथवा कल्पिका, 2. कल्पावतंसिका, 3. पुष्पिका, 4. पुष्पचूलिका और 5. वृष्णिदशा। निरयावलिया (कल्पिका) में 10 अध्ययन हैं जिनमें राजा कुणिक आदि की कथायें हैं। मगध का इतिहास जानने के लिए यह बहुत उपयोगी है। 9. कल्पावतंसिका -- इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें राजा श्रेणिक के 10 पौत्रों के सत्कर्म की कथायें हैं। 10. पुष्पिका -- इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें चन्द्र, सूर्य और शुक्र के वर्णन के साथ अन्य कथायें हैं। 11. पुष्पचूलिका -- इसके 10 अध्ययनों में श्री, ह्री आदि की कथायें हैं। 12. वृष्णिदशा -- इसमें 12 अध्ययन है जिनमें द्वारका के राजा कृष्ण वसुदेव के वर्णन के साथ वृष्णिवंशीय 12 राजकुमारों की कथायें हैं। मूलसूत्र -- साधु जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने से ये मूलसूत्र कहलाते हैं। 'मूलसूत्र' नाम का भी उल्लेख प्राचीन आगमों में नहीं मिलता है। मूलसूत्र नामकरण के विषय में, इनकी संख्या के विषय में तथा मूलसूत्रान्तर्गत आगम ग्रन्थों के नामों के विषय में मतभेद है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक को सभी एक स्वर से मूलसूत्र मानते हैं। अन्य नामों में आवश्यक, नन्दि और अनुयोगद्धार प्रमुख हैं। पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति और पाक्षिकसूत्र को भी कुछ लोग 301
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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