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________________ सिद्ध-सारस्वत मङ्गल आशीर्वाद धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमस्सति, जस्स धम्मे सया मणो।। धर्म उत्कृष्ट मंगल है जो अहिंसा, संयम और तपरूप है। जिसका मन सदा धर्ममय होता है उस मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं। अहिंसा जहाँ है वहाँ समरसता है। संयम और तप भी अहिंसा में ही पलते हैं। अहिंसा कायरता नहीं है। अहिंसा को परमधर्म कहा है। जैनधर्म में अहिंसा से ही साधुधर्म तथा गृहस्थ धर्म पलता है। अतः अहिंसा को मूल में रखते हुए जैन सिद्धान्तों की व्याख्या करना चाहिए। जितने भी नियम उपनियम हैं सबकी मूल कसौटी अहिंसा है। जहाँ अहिंसा है वहीं वीतरागता भी है। आप विद्वान् हैं। आपका यश भी है। हम चाहते हैं कि आप वीतरागता की ओर कदम बढ़ायें और आत्म सुख प्राप्त करें। सद्धर्म वृद्धिरस्तु। प.पू. 108 श्री संभव सागर जी महाराज शुभाशीष स्वगृहे पूज्यते मूर्खः, स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। स्वराज्ये पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।। अगर प्रतिभा को उचित अवसर न मिले तो वह कुण्ठित होकर दम तोड़ देती है। अगर प्रतिभा को उचित समय पर उचित अवसर मिल जाए तो वह कई मायनों में खरी उतरती है तथा कालान्तर में वटवृक्ष जैसा विशाल रूप लेकर नगर, देश, समाज, धर्म आदि का नाम रोशन कर सकती है। यही कुछ प्रोफेसर सुदर्शनलाल जैन के सन्दर्भ में देखने को मिलता है जिन्होंने एक छोटे से ग्राम में जन्म लेकर भी देश के महामहिम राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्ति तक का मार्ग प्रशस्त किया और जिससे वे सिद्ध-सारस्वत बन गए। प्रो. जी काफी सरल, सहज और ज्ञान के धनी हैं और ऐसी समग्रता एक विद्वान् में मिलना काफी कठिन है। उन्हें देखकर यह कठिन कार्य भी सहज सा लगता है। वस्तुत: यह सब वैभव जिनशासन को समर्पित करने में अग्रणी हैं। प्रो. जैन के उज्ज्वल भविष्य की हम कामना करते हैं और यही भावना भाते हैं कि उन्हें शाश्वत् सिद्ध-सारस्वत बनने का सौभाग्य मिले। सुखिया होवे सारी दुनियाँ, कोई दुःखी न होवे। हे प्रभु। निजमङ्गल के पहले, जग का मङ्गल होवे।। / / शुभं भूयात् / / प.पू. मुनि श्री 108 श्रीसुव्रत सागर जी महाराज
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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