________________ युक्ति और आगम के द्वारा पर्यायों की क्रमबद्धता और अक्रमबद्धता को सिद्ध किया है। ऐसा मानने में ही जीवों का कल्याण है और अनेकान्तसिद्धान्त के अनुकूल है। इसके अतिरिक्त विद्वान् लेखक ने प्रसङ्गानुकूल पुद्गलों का आवश्यक सूक्ष्म विवेचन भी प्रस्तुत पुस्तक में किया है। सन्दर्भसूची - 1. सद् द्रव्यलक्षणम् / उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / तत्त्वार्थसूत्र 5-29-30 2. गुणपर्ययवद्र्व्य म् / तत्त्वार्थसूत्र 5-38 3. देखें मूलग्रन्थ का पृ0 12,17,35 4. वही, देखें पृ07-9 5. वहीं, देखें पृ0 24-31,35 6. वही, देखें पृ0 31-341 श्वेताम्बर जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य भगवान महावीर (ई.पू. छठी शताब्दी) की अर्थरूप वाणी से उपदिष्ट सिद्धान्तों के प्रतिपादक प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थों को जैनागम के नाम से जाना जाता है। सिद्धान्तविषयक सन्देह होने पर सन्देह-निवारणार्थ इन्हें आगम प्रमाण माना जाता है। गणधर या श्रुतज्ञ ऋषियों के द्वारा प्रणीत होने से 'आर्षग्रन्थ' तथा श्रुत परम्परा से प्राप्त होने के कारण 'श्रुतग्रन्थ' के रूप में भी ये जाने जाते हैं। इन्हें प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है -1. अङ्ग प्रविष्ट (अङ्ग) 2. अङ्गबाह्य। अङ्ग ग्रन्थ वे हैं जो भगवान महावीर के साक्षात शिष्यों (गणधरों) के द्वारा रचित हैं तथा अङ्गबाह्य ग्रन्थ वे हैं जो उत्तरवर्ती श्रुतज्ञ आचार्यों के द्वारा रचित हैं। भगवान महावीर के साक्षात् शिष्यों के द्वारा रचित होने से अङ्ग ग्रन्थ सर्वप्रधान हैं। इन्हें बौद्धों के 'त्रिपिटक' की तरह 'गणिपिटक' तथा ब्राह्मणों के वेदों की तरह 'वेद' भी कहा गया है। इनकी संख्या बारह नियत होने से इन्हें 'द्वादशाङ्ग के नाम से भी जाना जाता है। इस तरह अङ्ग और अङ्गबाह्य सभी ग्रन्थ अर्थरूप से महावीर प्रणीत हैं तथा शब्दरूप से गणधर प्रणीत या तदुत्तरवर्ती श्रुतज्ञ आचार्यों के बरा प्रणीत है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. 683 तक श्रुत परम्परा चली जो क्रमशः क्षीण होती गई। आगमों को लिपिबद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, जिससे सभी (12 अङ्ग तथा 14 अङ्गबाह्य) आगम ग्रन्थ लुप्त हो गये। इतना विशेष है कि इन मूल आगमों के नष्ट हो जाने पर भी दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्ग ग्रन्थान्तर्गत पूर्वो के अंशांश ज्ञाताओं द्वारा (वीरनिर्वाण 10वीं शताब्दी में) रचित षट्खण्डागम और कषायपाहुड को तथा वीरनिर्वाण की 14वीं शताब्दी में रचित इनकी क्रमश: धवला और जयधवला टीकाओं को आगम के रूप में मानते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थों को भी आगम के रूप में स्वीकार करते हैं। श्वेताम्बर परम्परानुसार देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अन्तिम वलभीवाचना (वीरनिर्वाण सं. 980 के करीब ) के समय स्मृति-परम्परा से प्राप्त आगमग्रन्थों को सङ्कलित करके लिपिबद्ध किया गया। दृष्टिवाद नामक 12वां अङ्ग ग्रन्थ उस समय किसी को याद नहीं था जिससे उसका सङ्कलन नहीं किया जा सका। फलत: उसका लोप स्वीकार कर लिया गया। इस तरह अङ्गों की संख्या घटकर 11 रह गई। अङ्गबाह्य आगम कितने है? इस विषय में मतभेद हैं - 1. दिगम्बर परम्परा -- 14 अङ्गबाह्य ग्रन्थ हैं। जैसे - 1. सामायिक, 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. वैनयिक, 6. कृतिकर्म, 7. दशवैकालिक, 8. उत्तराध्ययन, 9. कल्पव्यवहार, 10. कल्पाकल्प, 11. महाकल्प, 12. पुण्डरीक, 13. महापुण्डरीक और 14. निषिद्धिका / श्वेताम्बर परम्परानुसार इन 14 अङ्गबाह्य के भेदों में प्रथम 6 भेद छह आवश्यक रूप हैं, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का मूलसूत्रों में समावेश है, शेष 6 भेदों का अन्तर्भाव कल्प-व्यवहार और निशीथ नामक छेदसूत्रों में है। 2. स्थानकवासी श्वेताम्बर परम्परा - 21 अङ्गबाह्य ग्रन्थ हैं। जैसे - 12 उपाङ्ग, 4 मूलसूत्र (उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार), 4 छेदसूत्र ( दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ) तथा 1 आवश्यक। 299