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________________ विसर्जित कर पुनः उसी स्थान पर उसी आसन से बैठ सकता है। अन्य किसी भी प्रकार की बाधा या उपसर्ग होने पर ध्यान से विचलित नहीं होता है। 9. द्वितीय सप्त अहोरात्रिकी- यह भी पूर्ववत् सात दिन-रात की है। इसमें दण्डासन, लकुटासन अथवा उत्कटुकासन से कायोत्सर्ग ध्यान किया जाता है। 10. तृतीय सप्त अहोरात्रिकी- यह भी सात दिन-रात की है। इसमें गोदोहनिकासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन से कायोत्सर्ग (आत्म-ध्यान) किया जाता है। 11. अहोरात्रिकी- यह एक अहोरात्रिकी (24 घण्टे = सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक) की प्रतिमा है। इसमें साधक दो दिन तक निर्जल उपवास (षष्ठभक्त = बेला) करके नगर के बाहर चौबीस घण्टे तक खड्गासन (दोनों पैरों को संकुचित करके तथा दोनों भुजाओं को जानु-पर्यन्त जांघ तक लम्बी करके) से ध्यान लगाता है। 12. रात्रिकी- इस प्रतिमा का प्रारम्भ अष्टम भक्त (तीन दिन तक चारों प्रकार के आहार का त्याग रूप तेला) तप से किया जाता है। पूर्ववत् खड्गासन से नगर के बाहर कायोत्सर्ग (ध्यान) करता है। इसमें शरीर को थोड़ा सा आगे झुकाकर किसी एक पुद्गल द्रव्य पर अनिमेष दृष्टि लगाता है और अपनी इन्द्रियों को भी गुप्त कर लेता है। इस ध्यान (निर्विकल्प समाधि) में ध्याता और ध्येय दोनों एकाकार हो जाते हैं। यह अति कठिन ध्यान है। इसमें असावधानी बरतने पर बहुत अनिष्ट (पागलपन, भयंकर रोग, धर्मच्युति) होता है और यदि सम्यक् साधन कर लेता है तो क्रमश: अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। इस तरह साधु का यह प्रतिमायोग आयारदसा की छठी दसा में बतलाया गया है। यही श्वेताम्बर मान्यता है। दिगम्बर मान्यता दिगम्बर परम्परा में भी इन्हीं नामों वाली साधु की बारह प्रतिमाएँ मिलती हैं। सल्लेखना के प्रकरण में कहा गया है कि यदि साधु की आयु एवं शरीर की शक्ति अधिक शेष है तो उसे शास्त्रोक्त बारह प्रतिमाओं को धारण करके क्रमश: आहार का त्याग करना चाहिए। महासत्त्वशाली, परीषहजयी तथा उत्तम संहनन वाला क्षपक साधु इन प्रतिमाओं को धारण करता है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान को करते हुए क्रमश: अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार ये सभी प्रतिमाएँ उत्तरोत्तर कठिन एवं श्रेष्ठ हैं। 1. मासिकी- दुर्लभ आहार-ग्रहण सम्बन्धी विधि लेकर नियम करता है- 'यदि एक मास में ऐसा आहार मिला तो आहार लूँगा अन्यथा नहीं'। मास के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण कर लेता है। इसी तरह अग्रिम प्रतिमाओं में आहार विधि के कठोर नियम लेकर पूर्ववत् आहार न मिलने पर प्रतिमायोग धारण करता है। 2. द्विमासिकी, 3. त्रिमासिकी, 4. चतुर्मासिकी, 5. पञ्चमासिकी, 6. पाण्मासिकी और 7. सप्तमासिकी। 8-10 सप्त- सप्त दिवसीय तीन प्रतिमाएँ ये भी पूर्ववत् सौ-सौ गुना अधिक कठिन विधि पूर्वक होती हैं। इनमें क्रमश: 3, 2 और 1 ग्रास आहार लिया जाता है।। 11 अहोरात्रिकी तथा 12 रात्रिकी- इन दो प्रतिमाओं में अनगार क्रमश: चौबीस तथा बारह घण्टों का प्रतिमायोग (कायोत्सर्ग-आत्मध्यान) करता है। फलस्वरूप सूर्योदय होने पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। पश्चात् अन्तिम प्रतिमायोग करके सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है। इस तरह दोनों परम्पराओं में श्रमण-प्रतिमाओं में थोड़ा अन्तर है। वस्तुतः ये वीतरागता-प्राप्ति के सोपान हैं। इनकी अवधि दोनों परम्पराओं में (उपवास आदि की अवधि न जोड़ने पर) 28 मास साढ़े 22 दिन होती है। सन्दर्भ 1. देखें, आयारदसा छह और सात दशायें। समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश। 2. प्रतिमा प्रतिज्ञा-अभिग्रहः / स्थानांगवृत्ति, पत्र 184 3. पं. आशाधर प्रणीत मूलाराधनादर्पण, गाथा 25, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, पृ. 392-393 275
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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