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________________ श्रावक और श्रमण की प्रतिमाएँ उपासक (श्रावक या गृहस्थ) की ग्यारह और श्रमण (मुनि या भिक्षु या साधु या अनगार) की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख जैन आगमों में मिलती है। उपासक और श्रमण दोनों की प्रतिमाओं का उल्लेख हमें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मिलता है।' 'प्रतिमा' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त है- प्रतिज्ञा-विशेष', व्रत-विशेष, अभिग्रह-विशेष, मूर्ति, प्रतिकृति, बिम्ब, प्रतिबिम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि। प्रस्तुत प्रसङ्ग में 'प्रतिमा' शब्द तप-विशेष या वीतरागता-वर्धक-साधना पद्धति की भूमिकाओं (सोपानों) के अर्थ में लेना चाहिए। इन्हें प्रतिमा या योगसाधना भी कह सकते हैं। प्रतिमाधारी उपासक (गृहस्थ या सागार या श्रावक) श्रमणसदृश या श्रमण-जीवन की प्रतिकृति रूप हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में परवर्ती प्रतिमाओं में स्थित श्रावक को पूर्ववर्ती प्रतिमाओं का जीवनपर्यन्त पालन करना आवश्यक है परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में समयसीमा का निर्धारण होने से जीवनपर्यन्त धारण करना आवश्यक है, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। श्रमण की प्रतिमाएँ तप-विशेष हैं जिन्हें क्रमशः धारण किया जाता है। श्रावक (उपासक) प्रतिमाएँ श्रावक के तीन प्रकार बतलाये गए हैं जो उत्तरोत्तर उत्कृष्ट हैं- 1. पाक्षिक (प्रारम्भिक अवस्था वाला), 2. नैष्ठिक (प्रतिमाधारक) और 3. साधक (समाधिमरणधारी)। पाक्षिक श्रावक- पाक्षिक श्रावक वह है जो पाँच अणुव्रतों (स्थूल अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का पालन करता है। मद्य, मांस और मधु (शहद) का सेवन नहीं करता है। जुआ, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, शिकार आदि से भी दूर रहता है। पीपल, वट, पिलखन, गूलर और काक- इन पाँच क्षीरी फलों या उदुम्बर फलों (जन्तुफल या हेमदुग्धक) का भी सेवन नहीं करता है। जिन वृक्षों से दूध जैसे पीले रंग का पदार्थ निकलता है वे क्षीरीफल कहे जाते हैं। इसमें त्रसजीवों की सत्ता नग्न आँखों से देखी जा सकती है। उपासक त्रस-हिंसात्यागी होता है। रात्रिभोजन न करना, छना पानी पीना, गुरुसेवा करना, सुपात्रों को दान देना आदि कार्य पाक्षिक श्रावक के लक्षण हैं। पाक्षिक श्रावक नैष्ठिक श्रावक बनने की तैयारी में होता है। यह पाँच अणुव्रतों के साथ सात शीलों का भी पालन करता है। सात शील (3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रत) हैं। दिग्व्रत, देशावकाशिक (देशव्रत), अनर्थदण्ड-विरत, सामायिक, भोगोपभोग-परिमाण, पोषधोपवास और अतिथि-संविभाग। दोनों परम्पराओं में इनके क्रम में अन्तर है। साधक श्रावक- मरणकाल के सन्निकट आने पर साधक श्रावक चारों प्रकार के आहार का त्याग करके सन्थारा या सल्लेखना या समाधिमरण लेता है। इसे कब ले सकते है, कब नहीं? विधि क्या है? उस समय कैसे विचार हों? आदि का विचार शास्त्रों में किया गया है। यह मरण न तो आत्महत्या है और न ही इच्छामृत्यु। मेरा सल्लेखना वाला लेख द्रष्टव्य है। नैष्ठिक श्रावक- पाक्षिक श्रावक जब नैष्ठिक श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के माध्यम से वीतरागता की ओर बढ़ना चाहता है तो उसे क्रमश: इन प्रतिमाओं को धारण करना पड़ता है। पाक्षिक श्रावक जिन नियमों को अभ्यास के रूप में पालन करता था उन्हें ही यहाँ नियमपूर्वक अतिचार-रहित पालन करना होता है। श्वेताम्बरों में प्रतिमा-ग्रहण की कालसीमा भी बतलायी है जबकि दिगम्बरों में जीवनपर्यन्त पालने का नियम है। इनके क्रम के विषय में तथा नाम के विषय में श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में थोड़ा अन्तर है, जो नगण्य है। श्वेताम्बर परम्परा के उपासकदशाङ्गसूत्र में आनन्द श्रावक के प्रसङ्ग में उसके द्वारा धारण की गई ग्यारह प्रतिमाओं के कथन हैं जो इस प्रकार हैं- 1. दर्शन, 2. व्रत, 3. सामायिक, 4. पोषध, 5. कायोत्सर्ग या नियम, 6. ब्रह्मचर्य, 7. सचित्ताहार-वर्जन, 8. स्वयं आरम्भवर्जन, 9. भृत्य-प्रेष्यारम्भवर्जन, 10, उद्दिष्टवर्जन और 11. श्रमणभूत / दिगम्बर परम्परा के रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में श्रावक की प्रतिमाएँ हैं -1. दर्शन, 2. व्रत, 3. सामायिक, 4. पोषध, 5. सचित्तत्याग, 6. रात्रिभुक्तित्याग, 7. ब्रह्मचर्य, 8. आरम्भत्याग, 9. परिग्रहत्याग, 10. अनुमतित्याग और 11. 272
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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