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________________ कन्नड लेखिका ने अभिनव पम्प की अपूर्ण कविता को पूर्ण किया था। 10वीं शताब्दी में प्रसिद्ध पम्प ने आदिपुराण तथा विक्रमार्जुनविजय ग्रन्थ लिखे। पोन्न कवि ने शान्तिपुराण तथा भुवनैकरामाभ्युदय ग्रन्थ लिखे। रन्न कवि ने अजितपुराण तथा साहसभीमविजय या गदायुद्ध लिखे। चामुण्डराय ने त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण लिखा। इसके अतिरिक्त कन्नड जैन गन्थकारों ने गणित, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, पशुचिकित्सा आदि पर भी साहित्य लिखा। श्रीनरसिंहाचार्य ने अपने कन्नड कविचरिते में लिखा है कि कन्नड भाषा के 280 कवियों में से सर्वाधिक 95 कवि जैन थे। तमिल, तेलगु और मराठी साहित्य पर जैनों का प्रभाव कन्नड की तरह ज्यादा प्रभावक नहीं रहा। आज पूरे विश्व में जैनधर्म की प्रभावना हो रही है। 'दक्षिण में जैनधर्म' की विशेष जानकारी के लिए देखें- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-7 (पार्श्वनाथ विद्यापीठ), 'दक्षिण भारत में जैनधर्म' (पं0 कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ), 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया', जर्नल आफ बिहार-उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, जिल्द 3 आदि। जैन धर्म केवल निवृत्ति प्रधान नहीं है? समन्वयात्मक प्रवृत्ति प्रधान भी है। भारतीय अनुसन्धान इतिहास परिषद्, नई दिल्ली के आर्थिक अनुदान से पार्श्वनाथ विद्यापीठ में एक पन्द्रह दिवसीय (12-27 मार्च) कार्यशाला आयोजित की गई थी। जिसका विषय था जैन विद्या के स्रोत एवम् उसके मौलिक सिद्धान्त'। विषय बहुत व्यापक था परन्तु इसका लक्ष्य था जैन विद्या के सम्बन्ध में प्रचलित भ्रान्तियों का निवारण। समन्वयात्मक दृष्टि - जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जैन धर्म एक श्रमण परम्परा है और यह सामान्यतः निवृत्ति प्रधान मानी जाती है। यहाँ एक प्रश्न है कि क्या जैन धर्म केवल निवृत्ति प्रधान है? नहीं, निवृत्ति के अतिरिक्त यहाँ प्रवृत्ति विषयक कर्मकाण्ड तथा साहित्य भी उपलब्ध हैं। विभिन्न धार्मिक मान्यताओं की जैन धर्म में उपेक्षा नहीं की गई है अपितु उनका इनके मान्य महापुरुषों का सम्मान करते हुए न केवल विधिवत् अपनी परम्परा में अपनाया गया है अपितु उन्हें जैनधर्मानुयायी बतलाया गया है। जैसे- अवतारी राम, लक्ष्मण, कृष्ण, बलराम आदि को तीर्थङ्कर आदि महापुरुषों (शलाका पुरुषों) के साथ जोड़कर आदर दिया गया है और जैनेतर धर्मी भाइयों की भावनाओं को सम्मान दिया गया है। इतना ही नहीं वैदिक पुराणों में घृणित भाव से चित्रित रावण, जरासंध जैसे राजाओं को भी जैन पुराणों में सम्मान देकर अनार्यों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचने दी है। रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर विद्याधरवंशी बतलाया है। पंडित प्रवर रावण को सीता के साथ बलात्कार करने की सलाह दी जाती है परन्तु वह अपने व्रत के कारण वैसा प्रयत्न नहीं करता है। हनुमान, सुग्रीव आदि को बानर न मानकर विद्याधरवंशी बतलाया है। उनका ध्वजचिह्न अवश्य बानर था। इस तरह जैन पुराणों में पक्षपात की संकुचित भावना से ऊपर उठकर समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। इसी तरह नागवंशी राजाओं की हिंसात्मक पूजा-विधियों का निषेध करके उनके प्रमुख यक्ष नागादि देवताओं को अपने तीर्थङ्कर के रक्षक के रूप में स्थान दिया है। पशुओं को भी आदर देते हुए उन्हें भी तीर्थङ्कर चिह्न के रूप में समाहित किया गया है। इसी तरह वनस्पति, वायु, जल आदि के संरक्षण की आवश्यकता बतलाते हुए पर्यावरण संरक्षण को महत्त्व दिया गया है। यह समन्वयात्मक नीति जैनियों की अवसरवादिता नहीं है अपितु जैनधर्म के आधारभूत सिद्धान्तों की स्वाभाविक पृष्ठभूमि है। स्याद्वाद सिद्धान्त सभी की अनिवार्यता जैनधर्म की उदात्त विचारधारा-स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों के परिणाम स्वरूप आज विश्व ने इसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया है। भौतिक विज्ञान तथा तर्क के द्वारा भी इन सिद्धान्तों की पुष्टि होती है। विश्वबन्धुत्व की भावना को स्याद्वाद-सिद्धान्त के माध्यम से पल्लवित किया गया है। स्याद्वादसिद्धान्त अनिश्चयात्मक या संशयात्मक नहीं है अपितु एक निश्चयात्मक विचारदृष्टि को दर्शाता है। ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है जो इस सिद्धान्त को बिना स्वीकार किए अपने पक्ष को रख सकता हो। एक ओर वेदान्त दर्शन एकमात्र नित्य चिदात्मक ब्रह्म की सत्ता को मानता है और दृश्यमान् जगत् को मायाजाल कहता है, दूसरी ओर चार्वाक दर्शन मात्र भौतिक तत्त्वों की सत्ता को स्वीकार करके चैतन्य की उत्पत्ति उन्हीं का परिणमन मानता है। जैन धर्म जीव और अजीव (चित् और अचित्) दोनों 264
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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