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________________ इस विवेचन से स्पष्ट है कि मोक्षाभिलाषी मुनि को देश कालानुरूप तथा अवस्थानुसार अपनी शक्ति को न छुपाते हुए उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का सापेक्ष भाव से आश्रय लेना चाहिए। यद्यपि उत्सर्ग मार्ग को वस्तुस्वभाव कहा गया है परन्तु वह किसे कहा गया है ? इसका विचार भी आवश्यक है। दोनों का समन्वय ही श्रेयस्कर है। अपवाद मार्ग का मतलब स्वेच्छाचार या शिथिलाचार नहीं है। अतः 'अपनी शक्ति को न छुपाते हुए तपादि करना चाहिए ऐसा कहा गया है। शक्ति से न अधिक और न कम यही तात्पर्य है। मूलाचार में तथा उत्तराध्ययन सूत्र में भी देश-कालानुरूप धर्मोपदेश का विधान है। अहिंसा, संयम और रत्नत्रय की प्राप्ति जैसे हो वही धर्म है, बाकी बाह्य-क्रियायें हैं। जो बात आहार के सन्दर्भ में है वही विहारादि के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। स्याद्वाद-सिद्धान्त कभी भी एकान्तवाद का प्रतिपादन नहीं करता है। आ0 कुन्दकुन्द ने भी देश-कालानुरूप उत्सर्ग-अपवाद मार्ग के समन्वय का विवेचन किया है। जैन साहित्य में श्री हनुमान् महाबली हनुमान् की गणना जैन पुराणों में शलाकापुरुषों (प्रसिद्ध श्रेष्ठ महापुरुषों) में की जाती है। शलाकापुरुषों की संख्या अधिकतम 169 है-(24 तीर्थङ्कर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 बलभद्र, 9 प्रतिनारायण, 24 कामदेव, 24 तीर्थकर पिता, 24 तीर्थङ्कर माता, 9 नारद, 11 रुद्र तथा 14 कुलकर)। ये सभी महापुरुष (प्रतिनारायणों को छोड़कर) तद्भव मोक्षगामी या निकट भविष्य (1-2 भवों) में मोक्षगामी भव्यजीव माने जाते हैं। रुद्र और नारद शीघ्र मोक्षगामी नहीं माने गए हैं। राम की गणना आठवें बलभद्र में, लक्ष्मण की गणना आठवें नारायण में, रावण की गणना आठवें प्रतिनारायण में तथा हनुमान की गणना बीसवें कामदेव में की जाती है। प्रत्येक तीर्थङ्कर के काल में एक कामदेव होता है, जो अपने रूप, बल, विद्या आदि में लोकप्रिय होता है। हनुमान् बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के समय के कामदेव हैं। अतएव वे मुनिसुव्रतनाथ के आराधक रहे हैं। श्री हनुमान् वीतरागी एवं न्यायप्रिय पुरुषोत्तम राम के अनन्य सहयोगी रहे हैं। उनकी कार्यसिद्धि के लिए उन्होंने स्नेहवश गुप्तचर का भी काम करके सीता के अन्वेषण में अथक सहयोग किया है। हनुमान् का प्रवेश रामकथा में किष्किन्धा नगरी में होता है, जहाँ सुग्रीव सहित अनेक बलवान् योद्धा सीता को लङ्का से वापिस लाने की मन्त्रणा कर रहे हैं। सब ओर से दुर्गम लङ्कानगरी में विद्या-बलशाली पवनञ्जय-नरेश पुत्र हनुमान् ही प्रवेश करने में समर्थ हैं, ऐसा विचार कर श्रीभूति नामक सन्देशवाहक हनुमान् को लाने के लिए श्रीपुर भेजा जाता है। हनुमान राम के न्यायसङ्गत कार्य में सहायता करने किष्किन्धा आते हैं। राम, सुग्रीव आदि हनुमान् का भव्य स्वागत-सत्कार करते हैं। पश्चात् सीताअन्वेषणार्थ ससैन्य विमान पर आरूढ़ होकर दुर्गम लङ्कानगरी में प्रवेश करते हैं। लङ्का में पहुँचकर वे सर्वप्रथम विभीषण से मिलते हैं और उसे रावण के दुष्कृत्य के लिए उपालम्भ देते हैं। रावण को न्यायमार्ग की बात समझाने को परामर्श भी देते हैं। वहाँ से चलकर सीता जी की वाटिका में पहुँचते हैं। हनुमान् के सुदर्शन व्यक्तित्व से सीता जी आश्वस्त होती है तथा राम-लक्ष्मण का कुशलक्षेम पूछती हैं। विगत दस दिनों से सीता जी निराहार थीं। अतः हनुमान् उन्हें आश्वस्त करके हठपूर्वक कुछ फलादिक ग्रहण करने हेतु सहमत करते हैं। पश्चात् हनुमान् द्वारा उपवन नष्ट-भ्रष्ट किया जाता है, हनुमान को पकड़कर बाँधा जाता है और हनुमान् द्वारा लङ्कादहन किया जाता है। युद्ध में शक्ति लगने पर जब लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं, तो हनुमान सञ्जीवनी जड़ी-बूटी वाले पर्वत को लेकर नहीं आते, अपितु विशल्या नामक स्त्री चिकित्सिका को ससम्मान लाते हैं। हनुमान् इस तरह राम की सब प्रकार से सहायता करते हैं। वे रूपवान् और तेजस्वी तो थे ही, साथ ही संयमी, धैर्यवान्, विनम्र, दृढ़प्रतिज्ञ, प्रभावक एवं जैन धर्मानुयायी सद्गृहस्थ भी थे। ___ एक दिन अपनी रानियों के साथ सुमेरु पर्वत की वंदना को जाते समय रात्रि में उल्कापात देखकर वे संसार से विरक्त हो जाते हैं। उनकी आँखों के समक्ष संसार की असारता का चित्र दिखलाई देने लगता है। फलस्वरूप राम की तरह हनुमान् भी साढ़े सात सौ विद्याधरों के साथ जैनमुनि की दीक्षा ले लेते हैं। पश्चात् घोर तपश्चरण करके कर्मबन्धन को शिथिल करते हैं और महाराष्ट्र प्रान्त के तुङ्गीगिरी से शरीर त्यागकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रत्येक जैन निर्वाणकाण्ड के निम्न प्राकृत पद्य को पढ़कर अनन्त सिद्ध भगवन्तों की अर्चना करते हुए राम, सुग्रीव, गव, गवाक्ष, नील, महानील के साथ हनुमान् को प्रतिदिन प्रणाम समर्पित करते हैं - 221
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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