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________________ (8) परिहार (पृथक्करण)- दोष के अनुसार कुछ समय (पक्ष, मास आदि) के लिए सङ्घ से बाहर कर देना और उससे कोई सम्पर्क न रखना परिहार प्रायश्चित्त है। (9) उपस्थापना (पुनर्वतारोपण या पुनर्दीक्षा)- महाव्रतों के भङ्ग होने पर पुरानी दीक्षा पूरी तरह समाप्त करके पुनः नए सिरे से दीक्षित करना। 'छेद' में पूरी दीक्षा समाप्त नहीं की जाती है। अन्तिम दो (परिहार और उपस्थापन) के स्थान पर तीन (मूल, अनवस्थाप्य और पारश्चिक') प्रायश्चित्त के भेद मिलने से कुछ ग्रन्थों में दस भेद भी गिनाए हैं। 'किस दोष के होने पर कौन सा प्रायश्चित्त लेना पड़ता है' इसका वर्णन मूलाचार, व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त के प्रतिपादक ग्रन्थों में मिलता है। दोष के अनुसार गृहस्थ जीवन में भी ये प्रायश्चित्त देखे जाते हैं। जैसे, कान पकड़ो, माफी मांगो, आज का खाना बन्द, घर से या शहर से बाहर निकालना, जाति बहिष्कार करना, छात्रों को छात्रावास सुविधा से वञ्चित करना, परीक्षाफल रोक देना, स्कूल से कुछ समय या सदा के लिए निकाल देना, कुछ समय बाद पुनः प्रवेश दे देना, आदि। इस तरह प्रायश्चित्त के 9 अथवा 10 भेद हैं। यह प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति, काय, संयम-विराधना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का तथा लघु अथवा बृहत् होता है। जैसे पञ्चेन्द्रिय पशु-पक्षि आदि की विराधना से मनुष्य जाति की विराधना अधिक दोषजनक है। देश-काल आदि की परिस्थितियों तथा अपराधी की योग्यता अथवा संयम की स्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त भी छोटा-बड़ा होता है। अतः एक ही अपराध का प्रायश्चित्त अलग-अलग हो सकता है। आगमों में जो अपराध का प्रायश्चित्त बतलाया है वह सामान्य कथन है। इसका निर्णय सदुरु या आचार्य करता है। हम प्रायश्चित्त के आगम ग्रन्थ पढ़कर स्वयं प्रायश्चित्त नहीं ले सकते हैं। गुरु के अभाव में आप भले स्वयं प्रायश्चित्त कर लें परन्तु यथावसर गुरु से सही-सही बतलाएं तथा गुरु जो कहे तदनुसार करें। आचार्य यदि स्वयं व्रतों में दोष लगाता है तो उसे बड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। दोषों की शुद्ध कैसे होगी? इसका विवरण आगमों में विस्तार से दिया गया है। सन्दर्भ-ग्रन्थ 1. अनगार धर्मामृत 5.45 2. अनगार-धर्मामृत 5.46 3. मूलाचार, गाथा 363 4. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, सूत्र 9.22 5. आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोपस्थापना। तत्त्वार्थसूत्र 9.22 6. अनगार-धर्मामृत, संस्कृत टीका 7.37 7. अनगारधर्मामृत 7.57 8. देखें, वही 7.59 9. 'मूल' में 6 मास से अधिक की दीक्षा का छेद होता है और 'छेद' में 5 अहोरात्र से 6 मास तक की दीक्षा-छेद है। इस तरह मूल' चिरघाती है और 'छेद' सद्य:घाती है। -बृहत्कल्पभाष्य 711 10. मूलाचार (5.362) में मूल प्रायश्चित्त उसे कहा है जिसमें पुनः व्रत दिए जायें अर्थात् पुनः दीक्षा देना। अनवस्थाप्य- दीक्षा से हटाने के बाद तत्काल पुनः दीक्षा न देना। कुछ अवधि तक परीक्षण करने के बाद आचार्य व सङ्घ की अनुमति मिलने पर दीक्षा देना। 11. पारञ्चिक यह परिहार का ही भेद है। परिहार के तीन भेद हैं। निजगण अनुपस्थान, 2. सपरगणोपस्थान और 3. पारञ्चिक। तीनों भेदों में सङ्घ से निष्कासन मुख्य है। तीर्थङ्कर गणधर आदि की आशातना करने पर यह दण्ड दिया जाता है। अभिधान राजेन्द्रकोश में इसका विस्तार से वर्णन है- अनगार0 59 संस्कृत टीका। 12. व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त प्रधान ग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र 9.22 तथा इसकी टीकाएँ। लाटीसंहिता 7.82, प्रवचनसारोद्धार 92/750, मूलाचार 1033/5.363, व्यवहारभाष्य, गाथा. 53, अनगार0 7.37, स्थानाङ्गसूत्र, मधुकरमुनि टीका 10.73 218
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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