________________ हम ब्राह्मण कहते हैं। जो स्वजनों में आसक्तिरहित है, प्रब्रज्या लेकर शोक नहीं करता है तथा आर्यवचनों में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो कालिमा आदि मैलापन से रहित, स्वर्ण की तरह राग, द्वेष, भय आदि। दोषों से रहित है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो तपस्वी, कृश, दमितेन्द्रिय, सदाचारी, निर्वाण के सम्मुख है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो मन, वचन, काय से त्रस एवं स्थावर प्राणियों की हिंसा नहीं करता है। उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से मिथ्या वचन नहीं बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो सचित्त अथवा अचित्त वस्तु को थोड़ी अथवा अधिक मात्रा में बिना दिए हुए ग्रहण नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो मन, वचन, काय से दिव्य लोक सम्बन्धी, मनुष्यलोक सम्बन्धी एवं तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो जल में उत्पन्न होकर भी जल से भिन्न कमल की तरह कामभोगों में अलिप्त हैं उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो लोलुपता से रहित, क्षुधाजीवी (भिक्षान्नजीवी), अनगार, अकिञ्चनवृत्तिवाला, गृहस्थों में असंसक्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो पूर्व संयोग (मातापितादि), ज्ञातिजनों के संयोग तथा बन्धुजनों के संयोग को त्यागकर पुनः भोगों में आसक्त नहीं होता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इस विवेचन से ज्ञात होता है कि जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह को त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अकिञ्चन भाव को धारण करता है, राग-द्वेष से रहित है, सदाचारी है वही ब्राह्मण है। केवल ओंकार का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता है अपितु ब्रह्मचर्य को जो धारण करे वही ब्राह्मण है। ऐसा ब्राह्मण सबके द्वारा पूज्य, अबध्य और मुक्ति को प्राप्त करने वाला होता है। जो इन लक्षणों से रहित होकर 'यज्ञ', 'यज्ञ' चिल्लाया करते हैं वे मूढ़ शुष्क तपश्चर्या करने और वेद के असली रहस्य को जाने बिना सिर्फ अध्ययन करने वाले राख से आवृत्त अङ्गार की तरह हैं अतः जो वेद-पशुवध का उपदेश देते हैं वे सब वेद और पापकर्म द्वारा दी गई यज्ञ की आहुतियाँ, दुःशील वेदपाठी एवं यज्ञकर्ता की रक्षा नहीं करती हैं। क्योंकि कर्म बलवान हैं और वे बिना फल दिए दूर नहीं होते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि प्राचीन काल में ब्राह्मणों का आचार कितना आदर्शपूर्ण और उच्च था। तथा वे जो यज्ञ करते थे वे पशु-हिंसा से रहित और निर्दोष सामग्री से निर्मित होते थे और श्वेताम्बर जैन साधु भी उस यज्ञान्न को लेते थे। परन्तु बाद में यज्ञ पशु-हिंसा से दूषित हो गये जिससे महापुरुषों के द्वारा निन्दनीय हुए। स्मार्त द्रव्ययज्ञ - इनमें हिंसा नहीं होती है अपितु इनका सम्पादन घृत, धान्य आदि से होता है। इन यज्ञों में याजक की भावना हिंसा करने की नहीं रहती है फिर भी जो स्थावर जीवों की हिंसा इस यज्ञ को व्यवस्था में होती है वह नगण्य है। अतः इन यज्ञों का विरोध नहीं किया गया। जैन सम्प्रदाय में भी ऐसे यज्ञ वर्तमान हैं-जैसे पञ्चकल्याणक, मन्दिर-वेदी-प्रतिष्ठा आदि। परन्तु इनका - विधान सिर्फ गृहस्थों के लिए ही किया गया है जिससे स्पष्ट है कि ये यज्ञ परमार्थसाधक नहीं हैं। इनका उद्देश्य सिर्फ धर्म का प्रचार एवं प्रसार है। भावयज्ञ यही सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है भावों की प्रधानता होने के कारण इसे भावयज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ के सम्पादन में बाह्य किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है। कोई भी इस यज्ञ को कर सकता है। विभिन्न ग्रन्थों में इस यज्ञ के विभिन्न नाम हैं जो अपनी सार्थकता लिए हुए हैं। जैसे(1) यमयज्ञ4-मृत्यु का देवता माना जाता है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी (देवता भी) नहीं है जो मृत्युरूप यम देवता के द्वारा असित न होता हो। अत: जिस यज्ञ में मृत्युरूपी यम देवता का हवन किया जाता है और जिससे संसार का आवागमन छूट जाता है उसे यमयज्ञ कहते हैं। (2) अहिंसायज्ञ - इस यज्ञ में अहिंसा की प्रधानता होने से इसे अहिंसायज्ञ कहते हैं। अहिंसा सब धर्मों का मूल है। कहा है 'अहिंसा परमो धर्मः'। जैनधर्म में जो पाँच महाव्रत बताये हैं उनमें अहिंसा महाव्रत ही प्रधान है। इस अहिंसा की रक्षा के लिए ही अन्य सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत माने गये हैं। पाँचों महाव्रतों का महत्त्व अचिन्त्य है। इनके पालन से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में कई यज्ञों के नाम हैं जो जैनों को भी मान्य हैं। जैसे(1) दानयज्ञ- शीलवान प्रव्रजितों के लिए नित्य दान देना। 199