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________________ मोक्ष की व्याख्या सापेक्षवाद के बिना दुर्घट है। बौद्ध दर्शन में आत्मा को सर्वथा अनित्य कहा है सो वहाँ भी बन्ध-मोक्ष व्यवस्था सम्भव नहीं है क्योंकि वहाँ कर्मकर्ता, कर्म-बन्धन से छुटकारा प्राप्त करने वाला साधक तथा कर्मफल-भोक्ता अलगअलग हैं। न्याय दर्शन में तो चैतन्याभाव है, अत: यह पक्ष भी मोक्षोपयोगी नहीं लगता। इसीलिए लोगों को वृन्दावन के जङ्गल में निवास करना न्याय वैशेषिक के मोक्ष जाने की अपेक्षा अधिक अच्छा लगता है। जैन अपने आत्मस्वरूपानुसार मोक्ष में दुःखाभाव, अनन्त अतीन्द्रिय ज्ञान, दर्शन, सुख और सामर्थ्य को स्वीकार करते हैं। उसके अरूपी स्वभाव के कारण उसमें अव्याबाधत्व, सूक्ष्मत्व आदि को भी मानते हैं। अव्यवहित पूर्व-जन्म के शरीरपरिमाण के अरूपी आकार को मानते हैं क्योंकि आत्मा न तो व्यापक है और न अणुरूप। ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से लोकान्त में निवास मानते हैं। कर्म-सम्बन्ध न होने से पुनर्जन्म नहीं मानते। जीवन्मुक्तों को 'अर्हन्त' या केवली' कहते हैं और विदेहमुक्त को 'सिद्ध'। द्रव्य का स्वरूप 'उत्पाद-व्ययध्रौव्य' रूप स्वीकार करने के कारण मुक्तात्मा में भी समानाकार परिणमन तो मानते हैं परन्तु स्थान-परिवर्तन (गमन क्रिया) नहीं मानते। वहाँ सभी मुक्त सदा पूर्णत: कर्ममुक्त रहते हैं तथा सभी समान गुण वाले होते हैं, वहाँ कोई भी भेद मन आदि से रहित हैं। शुद्ध चैतन्यरूप आत्मा का वहाँ वास है। ज्ञान, सुखादि आत्मा से पृथक् नहीं हैं। मुक्तावस्था को प्राप्त सभी जीव ईश्वर हैं क्योंकि जैनदर्शन में कोई अनादि दृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है। सभी जीव संसार-बन्धन काटकर मुक्त हुए हैं। मुक्त पूर्णकाम होने से वीतरागी (इच्छारहित) हैं। सन्दर्भ 1. श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः।। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।-कठाउप0 1.2.2 2. चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम्।। तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते / / तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, आचार्य कमलशील, पृ0 104 3. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः / तत्त्वार्थसूत्र, 1.1 तथा 9.39-46 4. द्रष्टव्य, दीघनिकाय हिन्दी (अनुवाद), पृ0 28-29, 5. न्यायसूत्र 4.2.38-48, वेदान्तसार, पृ0 47-50 6 देखें, टि03 7. बन्धहेत्त्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः / तत्त्वार्थसूत्र 10.1 अप्पणो वसहिं वए। उत्तराध्ययन, 14.48 आत्मलाभं विदुर्मोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात्। नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् / / सिद्धि-विनिश्चय, पृ0 384 9. तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् // तत्त्वार्थसूत्र, 10.5 पूर्वप्रयोगादसङ्गत्त्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च / तत्त्वार्थसूत्र, 10.6 आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाम्बुवदेरण्डवीजवदग्निशिखावच्च / तत्त्वार्थसूत्र, 10.7 11. क्षेत्र-काल-गति-लिङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधित-ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्प-बहुत्वतः साध्याः / तत्त्वार्थसूत्र, 10.9 12. साक्षात्कारे सुखादीनां कारणं मन उच्यते / भाषा-परिच्छेद, का0 85 13. यदा सर्वे विमुच्यन्ते कामा ह्यस्य हृदि स्थिताः / तदा मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते // कठोपनिषद्, 2.3.14 14. सम्मत्तणाणदंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं / अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं / / लघु सिद्ध-भक्ति, 8 अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा अट्ठगुण कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा / / गो0जी0, 68 15. स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यम् / प्र०सा, त0प्र0, 61 181
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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