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________________ लेने की परम्परा नहीं है। पूजा-भक्ति के प्रकार 1. नाम-स्तव-भगवान् के गुणों का मन से स्मरण करना, वचनों से स्तुति करना, तथा काया से ललाट पर हाथ जोड़कर नमस्कार करना। तीर्थङ्करों के गुणानुसारी 1008 नामों का स्मरणादि करना। 2. स्थापना-स्तव-तीर्थङ्करों के समस्त गुणों को धारण करने वाली जिन प्रतिमाओं का कीर्तन करना। जिन-प्रतिमायें स्थापना निक्षेप से पूज्य हैं यदि उनकी विधिपूर्वक मन्त्रों द्वारा पञ्चकल्याणक के माध्यम से प्रतिष्ठा (जिनेन्द्र के गुणों की स्थापना जिसे जैनेतर प्राणप्रतिष्ठा कहते हैं) की गई हो, अन्यथा वे तथा चित्रादि पूजनीय नहीं हैं। 3. स्तव-तीर्थङ्करों के दिव्य शरीरों के स्वरूप को स्मरण करते हुए उनका कीर्तन करना। 4. क्षेत्र स्तव-तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म आदि पाँच कल्याणकों से पवित्र स्थानों (नगर, वन, पर्वत आदि) का वर्णन करना। जैसे अयोध्या, सिद्धार्थवन, कैलाश पर्वत आदि के महत्त्व का वर्णन। 5. काल स्तव-तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म आदि पाँच कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से जो काल महत्त्व को प्राप्त हुआ है ऐसे काल के महत्त्व को जानते हुए उस काल में अनुष्ठान आदि करना। जैसे भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर (दीपावली पर), जन्म दिवस (चैत्र शुक्ला त्रयोदशी) पर। 6. भाव स्तव-भगवन्तों के अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, क्षायिक-सम्यक्त्व अव्याबाधत्व, वीतरागता आदि गुणों की स्तुति। पूजा के अन्य प्रकार - 1. सदार्चन या नित्यमह (नित्य पूजा)-जन सामान्य सभी के द्वारा नित्य की जाने वाली पूजा। . 2. चतुर्मुख (सर्वतोभद्र या महामह)-मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा। 3. कल्पद्रुम पूजा-चक्रवर्ती राजाओं द्वारा किमिच्छिक दान (याचक की इच्छानुसार दान) देकर की जाने वाली पूजा। 4. आष्टाह्निक पूजा-आष्टाह्निक पर्व में की जाने वाली पूजा। 5. ऐन्द्रध्वज पूजा-देवेन्द्रों द्वारा की जाने वाली पूजा। इसी तरह अन्य विविध नैमित्तिक पूजाएँ हैं। जैसे दशलक्षण पूजा, सोलहकारण, पञ्चमेरु आदि। जैनदर्शन में जिनेन्द्र के गुणों की पूजा (भक्ति) का विधान है। उनके मार्ग पर आरूढ़ पञ्चपरमेष्ठियों (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु), जिनोपदिष्ट शास्त्रों, जिन मंदिर (चैत्यालय), जिन धर्म और चैत्य (प्रतिष्ठित प्रतिमायें) इन नव देवों को पूज्य कहा है। सभी जिनेन्द्रों में गुणों की अपेक्षा एकत्व (अभेद) मानकर एक की वन्दना से सबकी वन्दना सम्भव है यदि अन्य का निषेध न किया जाए। इस तरह जैनदर्शन में बहुत रूपों में और बहुत व्यापक भक्ति मिलती है। ईश्वर वीतरागी है फिर भी उसके गुणों के सङ्कीर्तन से कर्मक्षय, पुण्यलाभ, सांसारिक सुख और परम्परया मोक्ष (आत्यन्तिक सुख) मिलता है। भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा (इस आलेख में सभी भारतीय दर्शनों तथा तन्त्र सिद्धान्तों में स्वीकृत आत्मा के स्वरूप के विषय में गम्भीर एवं समीक्षात्मक चिन्तन किया गया है। इस चिन्तन के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा की नित्यता, अनित्यता, अणुरूपता, व्यापकता, शरीर-परिमाणता, सूक्ष्मता आदि का समन्वय कैसे किया जा सकता है। आत्मा चेतन है, ज्ञानरूप है तथा शरीर-इन्द्रियादि से भिन्न है। जैनदृष्टि ही इस सन्दर्भ में खरी उतरती है।) भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व (चेतन तत्त्व) के सम्बन्ध में बहुत गम्भीरता से चिन्तन हुआ है। आत्मा शरीर से भिन्न है या अभिन्न, एक है या अनेक, अणुरूप है या व्यापक या शरीर-परिमाण, नित्य है या अनित्य, ज्ञान उसका अपना स्वभाव है या आगन्तुक धर्म? इत्यादि प्रश्नों का समाधान विभिन्न धर्मों में विभिन्न प्रकार से मिलता है1. अनात्मवादी चार्वाक दर्शन शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से चेतन तत्त्व को पृथक् स्वीकार नहीं करने वाले चार्वाक दर्शन की मान्यता है कि 'पृथ्वी, जल, 171
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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