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________________ श्रतज्ञान साढ़े बारह वर्ष की घोरातिघोर साधना के फलस्वरूप 42 वर्ष की उम्र में चरम तीर्थपति भगवान महावीर परमात्मा को ऋजुवालिका नदी के तट पर छट्ट तप पूर्वक गोदोहिका आसन में केवलज्ञान प्रगट हआ / उस केवलज्ञान द्वारा वे जगत् के समस्त पदार्थों की समस्त पर्यायों को प्रत्यक्ष देखने लगे / चारों निकाय के देवताओं ने आकर परमात्मा के केवलज्ञान का महोत्सव किया...देवताओं ने समवसरण की रचना की....परंतु उस पर्षदा में सर्वविरति धर्म को स्वीकार करने की योग्यता किसी में नहीं होने से परमात्मा की वह देशना निष्फल गई / प्रभु ने क्षण भर देशना देकर वहाँ से विहार किया / प्रभुजी अपापापुरी नगरी में पधारे / वहाँ पर देवताओं ने समवसरण की रचना की...प्रभु ने धर्मदेशना देकर इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणों को प्रतिबोध दिया / ....उसके बाद इन्द्रभूति ने पूछा, 'भगवन् ! किं तत्त्वं ?' भगवान ने कहा 'उपन्नेइ वा !' पुनः पूछा, 'किं तत्त्वं ?' भगवान ने कहा-विगमेइ वा / पुनः पूछा-'किं तत्त्वं ?' भगवान ने कहा-धूवेइ वा / प्रभु के मुख से 'उपन्नेइ वा विगमेइ वा धूवेइ वा' इस त्रिपदी का श्रवण कर बीज बुद्धि के निधान गौतमस्वामी आदि गणधर भगवंतों ने द्वादशांगी की रचना की / भगवान सुधर्मास्वामी ने यह द्वादशांगी जंबुस्वामी को प्रदान की | जंबु स्वामी ने प्रभवस्वामी को प्रदान की / प्रभव स्वामी ने यशोभद्रसूरिजी म. को प्रदान की.. इस प्रकार श्रुतज्ञान की गंगा का प्रवाह आगे-आगे बढ़ता गया / समग्र द्वादशांगी के ज्ञाता, श्रुत-केवली कहलाते हैं / प्रभु महावीर के कर्मग्रंथ (भाग-1) 190 RANSIDE
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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