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________________ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सहचारी होने पर भी मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है क्योंकि अवग्रह आदि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान होता नहीं है / * श्रुतज्ञान के साथ काल, विपर्यय , स्वामी व लाभ की समानता होने से श्रुत के बाद अवधिज्ञान का क्रम है | * श्रुतज्ञान की तरह अवधिज्ञान की काल मर्यादा भी 66 सागरोपम की है। * मिथ्यात्व के उदय से मतिज्ञान व श्रुतज्ञान, मति-अज्ञान व श्रुतअज्ञान में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार अवधिज्ञान भी विभंग ज्ञान में बदल जाता है। * जिसे मतिज्ञान व श्रुतज्ञान होता है, उसी को अवधिज्ञान होता है, अतः स्वामी की समानता है | मिथ्यादृष्टि देव को सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तीनों एक साथ पैदा होते हैं, अतः लाभ की भी समानता है। अवधिज्ञान के बाद मनः पर्यवज्ञान क्यों ? अवधिज्ञान व मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ को होते हैं, अतः स्वामी की समानता है। ये दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य विषयक होने से विषय की समानता है / ये दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में होने से भाव की समानता है | ये दोनों ज्ञान आत्म प्रत्यक्ष होने से प्रत्यक्षता की समानता है। केवलज्ञान सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ होने से उसे सबके अंत में कहा गया दुःखी की दवा दुःख की औषध यही है कि आए हुए दुःख का ज्यादा विचार नहीं करना / दुःख मेरे ही कर्मों का फल है- ऐसा मानकर दुःख को समतापूर्वक, सहन करने से व्यक्ति नवीन कर्मबंध से अपने आपको बचा लेता है | कर्मग्रंथ (भाग-1)) 975
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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