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________________ कर्म-विपाक (प्रथम-कर्मग्रन्थ) 8 मंगलाचरण और विषय निर्देश) ......... सिरि-वीर-जिणं वंदिय, कम्मविवागं समासओ वुच्छं / कीरइ जिएण हेउहिं, जेणं तो भण्णए कम्मं |1|| शब्दार्थसिरि-श्री (लक्ष्मी), वीरजिणं महावीर जिनेश्वर को , वंदिय-वंदन करके, कम्मविवागं-कर्मफल को, समासओ-संक्षेप में, तुच्छं-कहूंगा, कीरइ-किया जाता है, जिएण-जीव द्वारा, हेउहि हेतुओं से, जेणं-जिस कारण, तो उस कारण, भण्णए कहा जाता है, कम्म-कर्म | सामान्य अर्थ श्री महावीर प्रभु को वंदन करके कर्म-विपाक (नामक ग्रन्थ) को मैं संक्षेप में कहूंगा / जीव द्वारा हेतुओं से जो किया जाता है, उसे कर्म कहते है / विशेष अर्थ विक्रम की 13-14 वीं शताब्दी में हुए पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी म. ने 5 कर्मग्रंथों की रचना की थी, उनमें यह प्रथम कर्म ग्रंथ है, इस कर्मग्रंथ में कर्म के फल का विस्तृत वर्णन होने से इस कर्मग्रंथ का नाम 'कर्म विपाक' रखा गया है। ग्रंथ के प्रारंभ में श्री वीरप्रभु को नमस्कार करके मंगलाचरण किया गया है / प्रारंभ किए हुए कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण अनिवार्य है। मंगलाचरण के रूप में यहाँ 'श्री वीर प्रभु' को वंदन किया गया है | श्री अर्थात् लक्ष्मी / लक्ष्मी दो प्रकार की है 1) अंतरंग लक्ष्मी और 2) बाह्य लक्ष्मी / कर्मग्रंथ (भाग-1)) 157
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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