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________________ दीन आदि को भूखा रखकर भोजन करने से, धर्म में जान बूझकर कमजोर बनने से, परस्त्री के साथ आनंद पूर्वक क्रीड़ा करने से, किसी की जमानत खा जाने से, पोपट आदि को पिंजरे में डालने से आत्मा अंतराय कर्म का बंध करती है। किसी को दान में अंतराय करने से दानांतराय कर्म का बंध होता है। इस कर्म के उदयवाला कृपण व्यक्ति शास्त्र का श्रवण भी नहीं करता है, क्योंकि उसे हमेशा भय रहता है कि गुरु के पास शास्त्र श्रवण करेंगे तो कुछ खर्च करना पड़ेगा। जिसने दानांतराय कर्म का बंध किया हो ऐसा व्यक्ति गुरु के उपदेश से भी दान गुण को प्राप्त नहीं कर पाता है / कृपण व्यक्ति के घर मुनि भगवंतों का भी आगमन नहीं होता है / कृपण व्यक्ति से उसके मित्र-स्वजन भी दूर रहते हैं | दानान्तराय के क्षयोपशम वाली आत्मा ही अपनी संपत्ति का प्रभु पूजा आदि में उपयोग कर पाती है / * लाभांतराय कर्म के उदय से आदीश्वर प्रभु को दीक्षा लेने के बाद तेरह मास तक कल्प्य आहार की प्राप्ति नहीं हुई थी। * भोगांतराय कर्म के उदय से मयणासुन्दरी की बहिन सुरसुंदरी को अनेक कष्ट उठाने पड़े / अरिदमन राजकुमार के साथ लग्न हुआ होने पर भी उसे नटी की तरह नाचना पड़ा था / * मम्मण सेठ के पास अपार संपत्ति थी, परंतु भोग-उपभोगांतराय कर्म के उदय के कारण वह अपनी संपत्ति का लेश भी भोग-उपभोग नहीं कर सका था / * भोग-उपभोगांतराय कर्म के उदय से भीमसेन राजा को भयंकर कष्ट उठाने पड़े थे / ___ * कर्म के विपाक रूप इस कर्मग्रंथ की रचना पू. आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी म.ने की है। कर्मग्रंथ (भाग-1) 1210
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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