SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधर्म और अनीति करने से जिस कुल ने चिरकाल से अप्रसिद्धि व अपकीर्ति प्राप्त की हो, वे नीच कुल हैं जैसे मद्यविक्रेता का कुल , वधक (कसाई) का कुल आदि / सद्धर्म की प्राप्ति में कुल का भी बड़ा महत्त्व है | उच्च कुल में सद्धर्म की प्राप्ति, सद्धर्म की आराधना, भक्ति आदि सुलभ होती है। तीर्थंकर परमात्मा भी उच्च कुल में अर्थात् उग्रकुल, भोग कुल, राजन्यकुल, हरिवंश कुल आदि में ही उत्पन्न होते हैं | प्रभु महावीर की आत्मा ने मरीचि के तीसरे भव में जाति मद करके नीच गोत्र कर्म का बंध किया था, उसी कर्म के उदय के फलस्वरूप अनेक भवों तक उन्हें ब्राह्मण आदि याचक कुल में जन्म लेना पड़ा था / अंतिम भव में भी वह कर्म संपूर्ण नष्ट नहीं हुआ होने से उनका अवतरण ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा की कुक्षी में हआ था और 82 दिन के बाद उनका गर्भ परिवर्तन त्रिशला महारानी की कुक्षि में हुआ था / चक्रवर्ती, बलदेव , वासुदेव आदि का भी गोत्र, उच्च गोत्र कहलाता है। मोक्ष-मार्ग की आराधना में आगे बढ़ने के लिए बाह्य संयोगों की अनुकूलता भी अनिवार्य है / एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीव एक समान धर्म आराधना नहीं कर सकते, क्योंकि सभी के संयोग एक समान नहीं पंचेन्द्रिय अवस्था में भी धर्म आराधना के लिए सबसे अधिक अनुकूलता मनुष्य भव में है, परन्तु सभी मनुष्य भी धर्म आराधना नहीं कर पाते हैं, जो मनुष्य आर्यदेश, उच्च गोत्र व जैन धर्म पालने वाले उच्च कुल में पैदा हए हों, जिन्हें देव-गुरु-धर्म के अनुकूल संयोग प्राप्त हुए हों, उन्हीं आत्माओं के लिए देशविरति-सर्वविरति धर्म की आराधना सुलभ होती है / आर्य देश में जन्म लेने पर भी जो नीच कुल में पैदा हुए हों, उन्हें सद्धर्म की आराधना दुर्लभ ही होती है / उच्च गोत्र में पैदा हुए बालकों में जीवदया, अभक्ष्य-त्याग, साधु पुरुषों का संग, दान, परोपकार आदि संस्कार सहज सुलभ होते हैं | कर्मग्रंथ (भाग-1) 191
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy