________________ धर्म , विवरीअं विपरीत / भावार्थ जिस प्रकार नालियर द्वीप के मनुष्य को अन्न पर न तो राग होता है और न ही द्वेष / उसी प्रकार मिश्र-मोहनीय कर्म से जैन धर्म के ऊपर अन्तर्मुहूर्त तक न राग होता है और न ही द्वेष ! मिथ्यात्व जैन धर्म से विपरीत होता है / विवेचन जिस द्वीप में नारियल को छोड़कर अन्य किसी प्रकार का धान्य पैदा नहीं होता है, उस द्वीप को नालियर द्वीप कहते हैं / उस द्वीप में रहनेवाले लोगों के दिल में अन्य अनाज के ऊपर न तो राग होता है और न ही द्वेष / बस, इसी प्रकार मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से जीव को श्री अरिहंत परमात्मा के द्वारा प्ररूपित जिनधर्म के प्रति न तो राग भाव होता है और न ही द्वेष भाव | मिश्र मोहनीय का उदय एक अन्तर्मुहूर्त तक होता है, उसके बाद अध्यवसाय बिगड़ जाय तो जीव को मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय हो जाता है और अध्यवसाय सुधर जाय तो सम्यक्त्व मोहनीय कर्म उदय में आ जाता है / मिथ्यात्व मोहनीय मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीवात्मा को जिनेश्वर भगवंत द्वारा प्ररूपित जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं होती है / जैसे रोगी को पथ्य चीजें अच्छी नहीं लगती हैं और अपथ्य चीजें अच्छी लगती हैं, बस, इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जीवात्मा को वीतराग-प्ररूपित वचन अच्छे नहीं लगते हैं। इस मिथ्यात्व के उदय से जीव, 18 दोषों से रहित सर्वज्ञ-वीतराग भगवंत को देव के रूप में स्वीकार नहीं करता है, बल्कि जो राग-द्वेष से युक्त हैं, उन्हें देव के रूप में स्वीकार करता है / जो कंचन-कामिनी के त्यागी और पंच महाव्रतधारी हैं, उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार न कर उन्मार्ग की राह बतानेवालों को गुरु के रूप में स्वीकार करता है / जो वीतराग प्ररूपित धर्म को धर्म नहीं मानता है और मिथ्याधर्म को धर्म के रूप में स्वीकार करता है / जिस व्यक्ति को साँप का जहर चढा हो, उसे नीम के कड़वे पत्ते भी मीठे लगते हैं / बस, इसी प्रकार जिस आत्मा को मिथ्यात्व का जहर चढ़ा हो, उस आत्मा को संसार का तुच्छ सुख भी अत्यधिक प्रिय लगता है | (कर्मग्रंथ (भाग-1) 1136