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________________ पू.आ. श्री देवेन्द्रसूरिजी म. जैन धर्म के प्रकांड विद्वान् थे / पू.आ.श्री शांतिसूरिजी म. विरचित 'धर्मरत्नप्रकरणम्' ग्रंथ पर उन्होंने बृहदवृत्ति टीका भी रची है। साथ में सुदंसणा चरियं, सिद्ध पंचाशिका सूत्र और उसकी टीका, चैत्यवंदन आदि तीन भाष्य , (वृंदारुवृत्ति) के साथ साथ सटीक नवीन पांच कर्मग्रंथों की भी रचना की थी / वि.सं. 1327 में मालवादेश में उनका अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ था / प्रस्तुत 'कर्म विपाक' नाम के प्रथम कर्म ग्रंथ में आठ कर्म के स्वरुप, उनके बंध के हेतु, उनके बंध की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति आदि का सुंदरशैली से वर्णन किया है। कर्म ग्रंथ संबंधी हिन्दी भाषा में बहुत ही अल्प साहित्य प्रकाशित हुआ है / पूर्व प्रकाशित हिन्दी-गुजराती प्रकाशनों को नजर समक्ष रखकर यह विवेचन तैयार किया है / इसमें जो कुछ शुभ है वह मेरे परम उपकारी गुरुदेव निःस्पृह शिरोमणि अध्यात्मयोगी वात्सल्य के महासागर पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री की कृपा दृष्टि एवं मेरे हितचिंतक समतानिधि ज्ञानदाता परम उपकारी पूज्य पंन्यासप्रवर श्री वज्रसेनविजयजी म.सा.के शुभ-आशीर्वाद का ही फल है / प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप से संयम-साधना मार्ग में मार्गदर्शन करनेवाले सभी उपकारी पूज्यों के प्रति कृतज्ञताभाव व्यक्त करता हूँ। छद्मस्थता वश कर्म विज्ञान के आलेखन में कहीं भी क्षति रह गई हो तो त्रिविध-त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडम् / अध्यात्मयोगी पूज्यपाद परम उपकारी गुरुदेव पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य कृपाकांक्षी आचार्य रत्नसेनसूरि कर्मग्रंथ (भाग-1)
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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