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________________ अनिवृत्तिकरण अनिवृत्ति अर्थात् वापस नहीं लौटना ! जो अध्यवसाय सम्यक्त्व को प्राप्त कराए बिना नहीं रहता हो, उस अध्यवसाय को अनिवृत्तिकरण कहा जाता है अर्थात् अनिवृत्तिकरण के बाद आत्मा अवश्य ही सम्यक्त्व प्राप्त करती है / इस करण का काल भी अन्तर्मुहूर्त जितना है। अंतर-करण अनिवृत्तिकरण में से संख्याता भाग व्यतीत होने पर जब एक संख्यातवाँ भाग बाकी रहता है, तब जीव अंतर करण करता है / 'अनिवृत्तिकरण के एक संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण स्थिति में रहे मिथ्यात्व के दलिकों को वहाँ से हटाकर कुछ दलिकों को नीचे की स्थिति में तथा कुछ दलिकों को ऊपर की स्थिति में डालकर घास रहित भूमि की तरह मिथ्यात्व के दलिकों से रहित करने की क्रिया को अंतरकरण कहा जाता है। फिर जीव प्रथम स्थिति (नीचे) में रहे दलिकों को भोगकर क्षय करता है और द्वितीय स्थिति में रहे दलिकों को प्रति समय उपशांत करता रहता है। इस प्रकार करने से जब प्रथम स्थिति में रहे सब दलिक क्षय हो जाते हैं तो उसके ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में मिथ्यात्व का एक भी दलिक नहीं होता है। मिथ्यात्व के दलिक से रहित भूमिका में प्रवेश करते ही जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है | किसी जन्मांध व्यक्ति को अचानक आँखें प्राप्त होने से जो आनंद होता है...अथवा किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को असाध्य रोग दूर होने पर जिस आनंद की अनुभूति होती है, उससे भी अधिक आनंद की अनुभूति सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जीवात्मा को होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के आनंद को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। कर्मग्रंथ (भाग-1)) 1131
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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