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________________ दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से जिन वचन में पूर्ण श्रद्धा भी हो जाय, परंतु इस कर्म का उदय हो तो आत्मा जिनोपदिष्ट आचरण कर ही नहीं पाती है। दंसण-मोहं तिविहं, सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं / सुद्धं अद्धविसुद्धं, अविसुद्धं तं हवइ कमसो ||14|| शब्दार्थ दसण मोहं=दर्शन मोहनीय , तिविहं तीन प्रकार का , सम्मं सम्यक्त्व, मीसं=मिश्र, तहेव तथा, मिच्छत्तं मिथ्यात्व, सुद्ध-शुद्ध , अद्धविसुद्धं अर्ध विशुद्ध , अविसुद्ध-अशुद्ध, तं=वे , हवइ होता है, कमसो=क्रमशः | भावार्थ दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय / वे अनुक्रम से शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध होते हैं। विवेचन आत्मा में रहे क्षायिक सम्यक्त्व गुण को ढकने का कार्य दर्शन मोहनीय कर्म करता है और आत्मा में रहे वीतरागता गुण को ढकने का कार्य चारित्र मोहनीय कर्म करता है / बंध की अपेक्षा तो दर्शन मोहनीय की प्रकृति मिथ्यात्व रूप ही है, परंतु उदय और सत्ता की अपेक्षा इस दर्शन मोहनीय के तीन भेद होते हैं | बंध के समय तो आत्मा मिथ्यात्व का ही बंध करती है परंतु उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर आत्मा अपने विशुद्ध अध्यवसायों द्वारा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों के रस में हानि करने के कारण उन्हें तीन भागों में विभक्त करती है। (कर्मग्रंथ (भाग-1) कर्मग्रंथ (भाग-1) = (129 =
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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