________________ 19 अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान-केवलज्ञान) अणुगामि-वड्ढमाणय-पडिवाइयरविहा छहा ओही / रिउमइ विउलमइ, मणनाणं केवलमिगविहाणं / / 8 / / शब्दार्थ अणुगामि अनुगामी, वड्ढमाणय वृद्धिंगत, पडिवाइ-प्रतिपाती / इयरविहा=विरुद्ध प्रकार से / छहा छह प्रकार से, ओही अवधिज्ञान, रिउमइ-ऋजुमति, विउलमइ-विपुलमति, मणनाणं=मनःपर्यवज्ञान, केवलं केवलज्ञान, इगविहाणं एक प्रकार का / गाथार्थ अनुगामी, वर्धमान, प्रतिपाती तथा इनसे विपरीत अननुगामी, हीयमान, अप्रतिपाती / इन छह प्रकारवाला अवधिज्ञान है | ऋजुमति और विपुलमति इन दो प्रकार से मनःपर्यवज्ञान है तथा केवलज्ञान एक ही प्रकार का है / विवेचन मति ज्ञान और श्रुतज्ञान, परोक्ष ज्ञान हैं, जब कि अवधिज्ञान आदि तीनों ज्ञान, प्रत्यक्ष ज्ञान हैं / मति व श्रुतज्ञान में इन्द्रिय व मन की अपेक्षा रहती है, जब कि अवधिज्ञान आदि प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, उनमें मन व इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती है, ये आत्म प्रत्यक्ष ज्ञान हैं | इस अवधिज्ञान के मुख्य दो भेद हैं 1) भव प्रत्यय और 2) गुण प्रत्यय भव प्रत्यय अवधिज्ञान भव के निमित्त को पाकर जो अवधिज्ञान पैदा होता है, उसे भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं / जैसे कोई जीव पंखी के रूप में पैदा होता है तो उस भव के कारण उसे उड़ने की कला हासिल हो जाती है / कोई जीव (कर्मग्रंथ (भाग-1)) D110