________________ प्रकाशक की कलम से... दीक्षा के दानवीर, महाराष्ट्र देशोद्धारक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के तेजस्वी शिष्यरत्न बीसवीं सदी के महायोगी, नमस्कार महामंत्र के अजोड साधक, चिंतक एवं अनुप्रेक्षक पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के कृपा पात्र चरम शिष्यरत्न मरुधररत्न गोडवाड़ के गौरव , बाली नगर की शान, चोपडा कुल दीपक पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा विवेचित प्रथम कर्म ग्रंथ हिन्दी विवेचन की तृतीय आवृत्ति का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यंत ही हर्ष हो रहा है / अपने संयम जीवन के प्रारंभिक काल से ही पूज्यश्री के अन्तर्मन में जैन धर्म संबंधी हिन्दी साहित्य के सर्जन में काफी रुचि थी, उनकी अन्तरंग रुचि को देखते हुए स्व. अध्यात्मयोगी पूज्यपाद गुरुदेवीश्री ने उन्हें साहित्यसर्जन के लिए प्रेरणा दी थी / 'गुरुकृपा' के बल से ही वे अपूर्व साहित्य सर्जन में सक्षम बने हैं। __अठारह वर्ष की युवावय में उनकी भागवती दीक्षा उनकी जन्मभूमि बाली (राज.) में वि.सं.2033 माघ शुक्ला त्रणेदशी दि. 2-2-1977 के शुभ दिन वर्धमान तपोनिधि पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री हर्षविजयजी गणिवर्य के कर कमलों से संपन्न हुई थी और वे अध्यात्मयोगी पू.पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के चरम शिष्य मु.श्री रत्नसेनविजयजी म.सा. के नाम से प्रसिद्ध हुए / दीक्षा अंगीकार करने के बाद नियमित एकाशन तप के साथ में उनकी ज्ञान-ध्यान की साधना आगे बढती गई। 'गुरुकृपा' के बल से उनकी प्रवचन शक्ति भी खिलती गई तो उसके साथ उनकी लेखन शक्ति भी आगे बढती गई, इसके फलस्वरुप ही वे आज तक 207 पुस्तकों का आलेखन संपादन कर सके हैं / वि.सं. 2038 वैशाख सुदी-14 के शुभदिन अपने प्राण प्यारे गुरुदेव की दूसरी वार्षिक पुण्यतिथि के शुभ दिन पू.मु.श्री रत्नसेनविजयजी म. ने 'वात्सल्य के महासागर' नाम की पहली हिन्दी पुस्तक का आलेखन किया था / योगानुयोग उस समय पू.मु.श्री जिनसेनविजयजी म.ने वर्धमान तप की कर्मग्रंथ (भाग-1) 03