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________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कहना निमूल है कि कृत-सज्ञक कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता। प्राचान काल में यह नाम अच्छी तरह से प्रचलित था। कृत की विजय का स्मारक चूंकि यह ऐतिहासिक सत्य है कि ईसा-पूर्व ६० के लगभग शकों ने उज्जयिनी को हस्तगत किया था और कुछ ही दिनों में उन्हें उस नगरी का परित्याग भी करना पड़ा, इसलिये यह मानमा पड़ता है कि प्राचीन परंपरा के अनुसार शकों के पराभव के सस्मरणार्थ ईसा से ५७ वर्ष पूर्व में एक नए सवत्सर की स्थापना हुई। इस काल-गणना का प्रारभ प्रथमतया मालव देश में ही हुआ और उसे 'मालवनिवासियों द्वारा स्वीकृत काल-गणना' (श्रीमालवगणाम्नात) ही कहा जाता था। ई० पू० प्रथम एवं द्वितीय शताब्दियों में मालव जाति राजपूताना और मालव प्रांत में प्रबल थो। अतएव यह भी स्पष्ट है कि ई० पू० ५७वाली शक-पराजय मालव के राष्ट्रपति ने ही की होगी। इस समय के मालव-राष्ट्रपति या सेनाध्यक्ष का वैयक्तिक नाम 'कृत' रहा होगा। उसके महान् पराक्रम का मूल्य चुकाने के लिये, जिस सवत की स्थापना की गई उसे मालव संवत् के साथ साथ कृत संवत भी कहा गया होगा। यह बात भी संभव है कि कृत को उसके पराक्रम के उपलक्ष में 'विक्रमादित्य' नामक उपाधि भी दी गई हो परतु इस बात का कोई प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं। उस बोर के नाम से जिस संवत का प्रारंभ किया गया वह ३-४ शताब्दियों तक 'कृत सवत्' नाम से ही अधिक प्रसिद्ध था। आगे चलकर लोग उसके पराक्रमों को भूलने लगे और चूँ कि यह कालगणना मालव राज्य में ही अधिक प्रसिद्ध थी अतएव इसे 'मालव संवत्' कहा जाने लगा। आठवी, नवीं शताब्दियों तक यह सवत् मालवा और उसके पासवाले राजपूताने के भाग में ही प्रचलित था, परंतु जैसे जैसे उसका क्षेत्र बढ़ता गया और वह बुदेलखंड, संयुक्त प्रांत, गुजरात, काठियावाई इत्यादि प्रांतों में फैलने लगा वैसे वैसे लोग 'विक्रम संवत् नाम से उसे पहचानने लगे और 'मालव सवत्' नाम लोगों की दृष्टि से हटने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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