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________________ पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन अहमस्मि सहमान उत्तसे नाम भूम्याम् । अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः ॥ (५४) 'अहमस्मि सहमान' की भावना अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार से सहस्राब्दियों तक भारतीय संस्कृति में प्रकट होती रही। इसके कारण अनेक परिस्थितियों के बीच में पड़कर भी जनता का जीवन अक्षुण्ण बना रहा । हे विश्वंभरा पृथिवी, तुम्हारे प्रिय गान को हम गाते हैं। तुम विश्व की धात्री (विश्वधायस ) माता हो, अपने पुत्रों के लिये पयस्वती होकर सदा दूध की धाराओं का विसर्जन करती हो। ध्रुव कामधेनु की तरह प्रसन्न ( सुमनस्यमान ) होकर तुम सदा सब कामनाओं को पूर्ण करती हो। हे कल्याणविधात्री, तुम क्षमाशील और विश्वगर्भा हो। तुम सदा अपने प्राणमय सस्पर्श से हमारे मनोभावों को और जीवन को सब तरह के मैल से शुद्ध रखनेवाली हो। हे माजेन करनेवाली देवि विमृग्वरी ( २९, ३५, ३७), तुम जिसको मॉज देती हो वही नव तेज से प्रकाशित होने लगता है। तुम धन-धान्य से पूर्ण वसुओं का अाधान हो। हिरण्य, मणि और कोष तुम्हारे वक्षःस्थल में भरे हुए हैं। हे हिरण्यवक्षा देवि, प्रसन्न होकर अपनी इन निधियों को हमें प्रदान करो। जिस समय तुम समुद्र में छिपी थी उस समय तुम्हें अपने जन्म से पहले ही विश्वकर्मा का वरदान प्राप्त हुआ था। तुम्हारे भुजिष्य पात्र में विश्वकर्मा ने अपनी हवि डाली थी (यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मा, ६०), इसके कारण विधाता की सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं और जितने प्रकार की सामर्थ्य है यह सब तुममें विद्यमान है। विश्वकर्मा की हवि में विश्व के सब पदार्थ सम्मिलित होने ही चाहिएँ, अतएव उन सब को देने और उत्पन्न करने का गुण तुममें है । हे विश्वरूपा देवि, जिस दिन तुमने अपने स्वरूप का विस्तार किया था, और देवों से संबोधित होकर तुम्हारा नामकरण किया गया, उसी दिन जितने प्रकार का सौंदर्य था वह सब तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट हो गया ( आ त्वा सुभूतम विशत्तदानी, ५५)। वही सौंदर्य तुम्हारे पर्वतों और निर्भरों में, हिमराशि और नदियों में, चर और अचर सब प्रकार के प्राणियों में प्रकट हो रहा है। हे मातृभूमि, तुम प्राण और आयु की अधिष्ठात्री हो, हमें सौ वर्ष तक सूर्य की मित्रता प्रदान करो जिससे हम तुम्हारे सौंदर्य को देखते हुए अपने नेत्रों को सफल कर सके। तुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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