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________________ २१६ . नागरीप्रचारिणी पत्रिका आने लगे और भारतीय पंडित प्रचारार्थ तिब्बत पहुँचने लगे। इस काल में जो पंडित तिब्बत गए उनमें प्रमुख स्मृति था। १०१३ में प्राचार्य धर्मपाल, सिद्धपाल, गुणपाल और प्रज्ञापाल के साथ तिब्बत गए। इसी समय सुभूति श्री शांति भी तिब्बत पहुँचे। इनके अतिरिक्त अन्य पंडित भी तिब्बत गए, परंतु इनमें सर्वप्रमुख दीपंकर श्री ज्ञान अतिशा थे। इनका तिब्बत-निवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने लगभग दो सौ प्रथ लिखे व अनूदित किए। अनुवाद करने और प्रथ लिखने के अतिरिक्त इन्होंने सार्वजनिक भाषण भी दिए और अंत में एकांतवास कर शिष्यों को जीवन-सुधार के लिये आवश्यक निर्देश भी दिए। ११वीं शताब्दि में बौद्वधर्म तिब्बत में अपने मध्याह्नकाल में था। स्थान स्थान पर विहारों और मंदिरों का निर्माण हो रहा था। बौद्धधर्म के अनेक संप्रदाय फैल रहे थे। ग्रंथों का अनुवाद हो रहा था; प्रचारक प्रचार कर रहे थे। इस काल का मुख्य व्यक्ति मर्-पा था। यह कर्मकांड का अद्वितीय पंडित था। इसने तीन बार भारत की यात्रा की थी। स्वदेश लौटकर इसने काग्यो संप्रदाय चलाया। इसका आज भी तिब्बत तथा भूटान में बहुत प्रचार है। १०७१ ई० में नैपाली सीमांत पर साक्या विहार की स्थापना हुई। इस विहार ने तिब्बत में भिक्षुओं का प्रभाव बढ़ाने में बहुत सहायता की। इसी समय चंगेजखाँ और उसके साथियों ने एशिया के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भाग लेना प्रारंभ किया। १२५८ ई० में कुबलेईखों ने एक महान् धार्मिक सम्मेलन बुलाया। इसमें तीन सौ बौद्ध भिक्षु, दो सौ कन्फ्यूशसधर्मी और दो सौ ताइधर्मी उपस्थित हुए । साक्या के महापंडित की वक्तृत्वकला के कारण बौद्ध लोग विजयी हुए। कुबलेईखाँ महापंडित से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने इसे मध्य तिब्बत का शासक नियुक्त कर दिया। इसके बाद ताशि-ल्हुन-पो विहार के महंत सानम्ग्यासो को मंगोलिया निमंत्रित किया गया। इसने अपने उपदेशों से कुबलेईखाँ को मोह लिया। कुबलेईखाँ ने बौद्रधर्म स्वीकार किया और सानम्ग्यासो को ताले-लामा की उपाधि प्रदान की। इसे परपरा रूप से सभी उत्तराधिकारी धारण करते गए। इस समय १४वा ताने-लामा शासन कर रहा है। यह ताले-लामा हो तिब्बत का राजा और धर्माचार्य दोनों पद धारण करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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