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पानपर्व का एक अध्ययन
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प्रमाणित हो जाती है कि यह प्रदेश बहुत समय तक द्वारा (५२२-४८६ ई० पू० ) तथा क्षरष् (४८६-४६५ ई० पू० ) के ईरानी साम्राज्य में सम्मिलित रहा । वरंग - ( ४७|१० ) वंग के पाठांतर तुरंग और आभीर भी दिए हैं । देखते ही यह विदित होता है कि 'व'ग' पाठ गलत है, और शुद्ध पाठ आभीर होना चाहिए । इसका कारण यह है कि आभीर पहाड़ी इलाकों में रहते और मछलियों पर जीवन निर्वाह करते थे ( सभा० २९ / ९ ) । लेकिन विचार करने पर वांग शुद्ध जाति प्रतीत होती है । ७वीं शताब्दी में ह्रत्संग ( वाटर्स, २, पृ० २५७-५८ ) ने मकरान में लंकीलो देश की चर्चा की है जो जूलियन के अनुसार संस्कृत लंगल का रूपांतर मात्र है । हृत्संग के अनुसार इनका देश रत्नों के लिये प्रसिद्ध था । महाभारत के अनुसार ( ४७|१०) यहाँ के लोग युधिष्ठिर को रत्न ले गए थे आधुनिक बलोचिस्तान में रत्न की खानों का पता अभी तक नहीं चला। मकरान के मेड़ों में एक उपजाति, जिसकी नस्ल का पता नहीं, लांग कहलाती है ( बल्लू० गजे०, जि० ७, १०६ ) । लांग और वंग में अक्षर का बदलना मुरौंडा- ख्मेर भाषाओं के अनुसार शुद्ध है । जिस प्रकार पूर्वी भारत में अंग और वांग के आद्यक्षर बदलते हैं उसी प्रकार भारतवर्ष के सुदूर पश्चिम में भी वही क्रिया जारी थी। इससे इस बात का अंदाजा किया जा सकता है कि किसी समय बलूचिस्तान में भी आग्नेय भाषा बोली जाती थी ।
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कितव - ( सभा०, ४७/१० ) कितव बलूचिस्तान के एक खास लोगों थे और अगर इनकी फेजों से पहचान ठीक है तो उनकी महत्ता इस बात से प्रकट होती है कि मध्यकाल में पूरा मकरान उनके नाम से केज मकरान सबोधित हुआ । मोकलर ( ज० ए० सो० बं०, १८९५, पृ० ३०-३६.) ने बहुत से प्रमाण अरब और फारसी लेखकों से लेकर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि एक जाति जो कुफ्स या कुफीस कहलाती है वह किरमान के दक्षिण पहाड़ों में रहती थी। इस जाति की पहचान उन्होंने एक बर्बर कबीले से की है, जिसका नाम कुफीस है। इस बात का अभी निश्चय करना बाकी है कि काफिश, कोफिच, कूस, काच, कूई, केच, कोच, कीस, कीज, केश, कक्ष और कुक्ष, जिनका नाम बिलधूरी, तबारी और इबूहौल में आया है वे एक ही हैं
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