SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पानपर्व का एक अध्ययन १६१ दिया हुआ है। बाग्ची के मतानुसार शुद्ध पाठ कपिशय होना चाहिए* । हमारी समझ में यह बात ठीक नहीं । कर्पिशय तथा कपिश एक ही शब्द के दो रूपांतर मालूम होते हैं। इस संबंध में कपिशा या किपन के बारे में कुछ और जानने की आवश्यकता है । पहले चीनी शास्त्रविदों का यह विश्वास था कि हान तथा वाइ काल में किपिन से काश्मीर का बोध होता था, लेकिन तांग युग में यह शब्द कपिश के लिये व्यवहार में लाया जाने लगा (कोनौ, ए० इंडिका, जिल्द १४, पृ० ९०-११) । स्टेन कोनो ने इस संबंध में सिल्वाँ लेत्री के मत की आलोचना की है। प्रो० लेवी के मत का सारांश यह है (ज० ए० जि० १, भाग ६, पृ० ३७१ और आगे) - उन्होंने fafer शब्द को संस्कृत कपिर से निकला माना है तथा इसकी तुलना टाल्मी (७, १, ४२ ) के कप्पेइरिया या कस्पेरयि ऑइ से की है, जो उनकी समझ में काश्मीर है। सिल्वाँ लेवी ने प्रो० कोनो की यह बात ठीक नहीं समझी कि किपन दो भिन्न भिन्न स्थानों का परिचायक था। उनकी समझ में किपन और काफिरस्तान एक ही हैं। यदि लेवी की बात ठीक है तो संभव है कि किपन शब्द का संबंध कार्पासिक से रहा हो। हमारे साहित्य में काश्मीर एक स्वतंत्र देश है, अतः कपिर या कार्पासिक शायद का फिरिस्तान का पुराना नाम हो । दूसरी मार्के की बात जो लेवी ने ( ज० ए० २,१९२३ ) बताई है वह है काश्मीर और कपिन की समानता । भाषा - शास्त्र के सिद्धांतों को लेकर, जिनका वर्णन इस लेख में नहीं हो सकता, उन्होंने कपिश और कंबोज एक ही नाम के रूपांतर माने हैं। प्लिनी के प्रतिलिपिकार सालिनस ने कपिश की हिज्जे कफुस लिखी है ( कनिंघम पृ० २२ ) जिसको डेल्फीन सौंपादकों ने कपिस्स कहकर शुद्ध कर दिया है। लेवी के मत के अनुसार कसर कपिस एक ही शब्द के रूपांतर हैं। अगर कफुस कपिशा के लिये व्यवहृत है तो इसकी उत्पत्ति कर्पास से कही जा सकती है। लेवी के इस सिद्धांत के सौंबरौंध में यह भी उल्लेखनीय है कि यदि कपिश और ककुस एक ही > * प्रबोधचंद्र बाग्वी - दि लेक्सोक संस्कृत शिन्वा, भाग २, पृ० ३४७ । २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy