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________________ विक्रम संवत्सर का अभिनंदन [ लेखक - श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ] अतीत का मेरुदंड और और मैं राष्ट्र से विक्रमां मैं संवत्सर हूँ --- राष्ट्र के विक्रम का साक्षी, भविष्य का कल्पवृक्ष । मुझसे राष्ट्र पोषित हुआ है कित हुआ हूँ । भारतीय महाप्रजाओं के मध्य में मैं महाकाल का वरद प्रतीक हूँ। मेरा और राष्ट्र का गौरव एक है। मेरे विक्रमशोल यश की पति है। गौरवशील शताब्दियाँ मेरो कीर्ति के जयस्तंभ हैं । मैं सोते हुओं में जागनेवाला हूँ। मेरे जागरणशील स्पर्श से युग-युग की निद्रा और तंद्रा गत हो जाती हैं। महाकाल की जो शक्ति सृष्टि को आगे बढ़ाती है वही मुझमें है । मेरे सशक्त बाहुओं में राष्ट्र प्रतिपालित हुआ है । मैं चलनेवालों का सखा हूँ । मेरे संचरणशील रथचक्रों के साथ जो चल सका है वही जीवित है। मेरे अक्ष की धुरी कभी गरम नहीं होती, धीर अबाधित गति से मैं आगे बढ़ता हूँ । पृथिवी और द्युलोक के गंभीर प्रदेश में मेरी विद्युत् तरंगे व्याप्त हैं। उनसे जिनके मानस संचालित हैं Baat निशा बीत जाती है । मैं प्रजापति हूँ । प्रजाओं के जीवन से मैं जीवित रहता हूँ । प्रजाएँ जब वृद्धिशील होती हैं तब मैं सहस्र नेत्रों से हर्षित होता हूँ । मैं आयुष्मान् हूँ । प्रजाओं का आयुसूत्र मुझसे है। मैं प्रजाओं से आयुष्मान् और प्रजाएँ मुझसे आयुष्मान् होती हैं । उनके जिस कर्म में आयु का भाग है हम है। प्रत्येक पीढ़ी में प्रजाएँ आयु का उपभोग करती चलती हैं ; परंतु वे समष्टि रूप में अमर हैं क्योंकि उनके प्रांगण में सूर्य नित्य अमृत की वर्षा करता है। सूर्य अहोरात्र के द्वारा मेरे ही स्वरूप का उद्घाटन करता है। मैं और सूर्य एक हैं । मेरे एकरस रूप में संवत् और तिथियों के अंक दिव्य अलंकारों के समान हैं। उनकी शोभा को धारण करके मैं गौरवान्वित होता हूँ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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