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________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका मनुष्य के प्रयत्न अल्पायु होते हैं, विक्रम का साका लोक में चिरायुष लाभ करता है। जिस केद्र में विक्रम के भाव उत्पन्न होते हैं, उसकी लहरें तीन लोक में व्याप्त हो जाती हैं, विक्रम के स्फुरण को दूर तक सब अनुभव में लाते हैं। ___ जहाँ विक्रम है वहीं जीवन का पूर्ण विकास है । प्रत्येक मनुष्य अपने केंद्रबिंदु पर स्थित होकर विक्रम करने में समर्थ है। तपःप्रभाव और देवप्रसाद विक्रमशील आदर्श जीवन को उपलब्धि के साधन हैं । विक्रम के अनेक रूप हैं । विराट भाव विश्वरूप से युक्त होता है। स्वयं प्रजापति विष्णु ने विक्रमयज्ञ के द्वारा सृष्टि उत्पन्न की । क्षत्रकार्य, ज्येष्ठता, जानराज्य, और इंद्रत्व, इन चार गुणों को राजसूय यज्ञ में धारण करने के लिये राजा अपने राष्ट्र में विक्रम करता है। जातवेद आचार्य अपने प्राणों से भी प्रिय अंतेवासी के शुद्ध अंतःकरण में ब्रह्मदान द्वारा उसमें दीर्घायुष्य और अपने लिये अमृतत्व की उपलब्धि के निमित्त-विक्रम करता है। ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मचारी तापत्रय-विनाश तथा पुरुषार्थ चतुष्टय को प्राप्त करने के लिये ब्रह्मौदन रूपी महान् शक्ति को अपने अंदर परिपक्व करने के लिये देवदुर्लभ विक्रम करता है। इसी प्रकार माता और पिता, पति और पत्नी, ऋत्विक और यजमान, स्वामी और सेवक, आदि कल्याण-पथ पर निरापद अग्रसर होने के लिये सूर्य और चंद्र की भाँति सब अपने अपने क्षेत्र में पुनर्दान, अहिंसा और प्रज्ञान के आधार पर सतत विक्रम कर सकते हैं। विक्रम का परिणाम कभी अहितकर नहीं हो सकता। वह तो सदा सत्य के अनुष्ठान के लिये ही होता है। विक्रम तो केवल कल्याण का आह्वान करता है। एक जनपद के विषय में अश्वपति केकय की प्रतिज्ञा उनका महान् विक्रम है। मेरे जनपद में कोई स्तेन, संकल्प से विरहित अथवा आचारशून्य नहीं है। चक्रवर्ती महाराज दिलीप ने नंदिनी के रक्षार्थ अपने शरीर को अन्नरूप से सिंह के समक्ष प्रस्तुत करके एक लोकोत्तर विक्रम का परिचय दिया। इसी प्रकार भरत और भीष्म ने अल्पता की समस्त मर्यादाओं का अतिक्रमण करके भूमा भाव का महान् आदर्श स्थापित किया। आत्मविकास की अपेक्षा से ही विश्व का समस्त वैभव प्रिय होना संभव है, इस परम अध्यात्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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