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१०२ - नागरीप्रचारिणी पत्रिका ठहराव ( स्थिति, आम्नाय ) के अनुसार अपना इस समय संघटन किया और इसी समय से मालवगण-स्थिति-काल भी प्रारंभ हुआ (जरनल आफ् बिहार एड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, जिल्द १६, वर्ष १९३०)।
उपर्युक्त कथन में मालव-सातवाहन संघ का बनना तो स्वाभाविक जान पड़ता है ( यदि इस समय साम्राज्यवादी सातवाहनों का अस्तित्व होता), किंतु शातकर्णि विक्रमादित्य ( ? ) के विजय से मालवगण गौरवान्वित हुआ
और उसके साथ संधि करके मालव सवत् का प्रवर्तन किया, यह बात काल्पनिक है। इसके साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि गौतमीपुत्र शातकणि ने न केवल शकों को हराया किंतु शक, छहरात, अवति, प्राकरादि अनेक प्रांतों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया (नासिक उत्कीर्ण लेख, एपिमाफिया इंडिका, जिल्द ८, पृ०६०)। अतः उसके दिग्विजय की घटना मालवगण-स्थिति के काफी बाद की जान पड़ती है। साहित्य तथा उत्कीर्ण लेख किसी से भी इस बात का प्रमाण नहीं मिलता कि किसी सातवाहन राजा ने कभी विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। सातवाहन राजाओं का तिथिक्रम अभी तक अनिश्चित है। अपने विभिन्न मतों की सिद्धि के लिये विद्वानों ने उसको घपले में डाल रखा है। किंतु बहुसम्मत सिद्धांत यह है कि कायवों के पश्चात् साम्राज्यवादो सातवाहनों का प्रादुर्भाव प्रथम शताब्दि ई० पू० के अपराद्ध में हुआ। इसलिये आंध्रवंश का तेईसवाँ राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि प्रथम शताब्दि ई० पू० में नहीं रखा जा सकता। सातवाहन राजाओं के लेखों में जो तिथियां दा हुइ है वे उनके राज्यवर्षों की हैं, उनमें विक्रम संवत् या अन्य किसी क्रमबद्ध सवत् का उल्लेख नहीं है। जायसवाल क इस मत के संबंध में सब से अधिक निणायक गाथासप्तशती का प्रमाण है। आंध्रवंश के सत्रहवें राजा हाल के समय में लिखित यह विक्रमादित्य के अस्तित्व और यश से परिचित है, अतः इस वंश का तेईसवाँ राजा गौतमीपुत्र शातकणि तो किसी अवस्था में विक्रमादित्य नहीं हो सकता।
सीधा ऐतिहासिक प्रयत्न-इस तरह विक्रमादित्य के अनुसंधान में प्राच्यविद्याविशारदा न अपना उवर कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। किंतु इस प्रकार के प्रयत्न स विक्रमादित्य को ऐतिहासिकता की समस्या हल
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