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ऋषभदेव जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा भी कराई थी।
१३. सोलंकीवंशी नरेश मूलराज (६६१-६६६) ने चावड़ाँ वंशियों से गुजरात छीनकर अणहिलपाटन को अपनी राजधानी बनाली थी। यह जैनधर्म के भक्त थे' इन्होंने भी जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति के लिये एक बड़ा सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया था। इनके पुत्रचामड़(६६७-१०१०) ओर इनके पुत्रदुर्लभ(१०१०-१०२२) तथा दुर्लभ के भतीजे भीम प्र० (१०२२-१०६४) ने जैन धर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये । भीम प्र. के सेनापति विमलशाह जैनधर्मी और महायोद्धा थे । आबू का सरदार धन्धु बागी होगया था, तो उसे बश करने के लिये भीम ने इनको भेजा, इन्होंने बड़ी वीरता से उसपर विजय प्राप्त करली, जिससे खुश होकर भीम ने
आबू की चित्रकूट पहाड़ी विमलशाह को देदी थी जहाँ विमलशाह ने लाखों रुपयों की लागत से बड़ा सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया जिसको विमलवस्ति कहते हैं । महाराजा कर्ण(१०६४-१०६४) ने भी जैनधर्म की प्रभावना की। इनके उदय नाम के मन्त्री तो जिनेन्द्रदेव के इतने दृढ़ भक्त थे कि इन्होंने अहमदाबाद में उदयबराह नाम का जैन मन्दिर बनवाकर उसमें तीर्थंकरों की ७२ मूर्तियाँ स्थापित की थी । कर्ण का पुत्र सिद्धराज जयसिंह (१०६४-११४३) जैनधर्म के गाढ़े अनुरागो और श्रीवर्द्धमान महावीरके परम भक्त थे, जिनकी पूजा के लिये इन्होंने भ० महावीर का मन्दिर बनवाया। यह तीर्थ यात्रा के इतने प्रेमी थे कि न केवल स्वयं, बल्कि दूसरों को भी १. जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन, पृ० ११८ २-३ जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन पृ० ८५ ४. जैन वीरों का इतिहास पृ० ४२ ५-८ जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन पृ० ८७
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