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________________ जिनके प्रधान इन्द्रभूति थे, जिनके २१३० शिष्य थे। इनकं भाई अग्निभूति गौतम व वायुभूति तथा शुचिदत्त, सौधर्म प्रत्येक के अलग २ २१३० शिष्य थे । मौण्ड और मौर्य को मिला कर ८५० और अकम्पन, अधबेल, मैत्रेय और प्रभास को मिला कर २५०० शिष्य थे इस प्रकार ११ गणधर, सात' गणों के १४००० शिष्यों की सारसंभाल करते थे जिनमें से ७०० केवलज्ञानी अर्हन्त परमेष्ठी, ५०० मनः पर्यंत ज्ञानी, १३ अवधिज्ञानी, ६०० विक्रिया ऋद्धिधारी, ३०० ग्यारह अङ्ग चौदह पर्वोके जानकार, ४०० अनुत्तरवादी, जिनके तर्क, न्याय और वक्तृत्व शक्ति के सामने कोई टिक नहीं सकता था, और ६६०० वास्तविक संयम के धारी शिक्षक मुनि थे। ऐसे महान तपस्वी और सम्पन्न लोकोद्धारक १४००० मुनीश्वर, ३६००० चन्दना. प्रभावती, चेतना, ज्येष्ठा आदि महासंयमी अर्यिकाएँ, जो गाढ़े कपड़े की एक सफेद साढ़ी में ही सर्दी-गर्मी । की परीषह सहन करती थी एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं इस प्रकार मुनि, अर्यिका, श्रावक श्राविकाओं से शोभित, वीर-संघ चतुर्विधरूप था। श्वेताम्बरीय शास्त्रों में वीरसंघ का मुनि और अर्यिकाओं से युक्त बताया है, परन्तु स्वयं श्वेताम्बरीय 'कल्पसूत्र' (Js. Pt .I) में वीर-संघ के चार अङ्गों का उल्लेख है। श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र जी भी भ० महावीर का संघ चतुर्विध-रूप ही बताते हैं । असंख्य देवी देवता और सौभाग्यशील अनेक पशु-पक्षी, तिर्यंच भी वीर-संघ में से, इस १. श्रवणबेलगोल का शिलालेख नं० १०५ (२५४) । जैन शिलालेख संग्रह, पृ० १६६ ।' २, श्री जिनसेनाचार्यः हरिवंश पुराण, पर्व ४०-४१ । ३. श्री गुणभद्राचार्यः उत्तर पुराण, पर्व ७३, श्लोक ३७३-३७६ । ४. “गिहिणे गिहिमज्झ वसन्ता'-उपासक दशासूत्र २ । ११६ । ५ "निषसाद तथा स्थानं संपस्तत्र चतुर्विधः" -परिशिष्ट पर्व १। ४०० ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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