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________________ था, उस ने कहा, "तुम अपने श्लोक बताओ, हमें तुम्हारी शर्त मंजूर है ।" इस पर इंद्र ने श्लोक कहाः"त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नव पदसहितं जीवषट्कायलेश्या । पचान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमर्हद्भिरीश । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान्यः सवै शुद्ध दृष्टिः" ॥ · श्लोक को सुन कर इन्द्रभूति गौतम हैरान होगये और दिल ही दिल में विचार करने लगे कि मैंने तो समस्त वेद और पुराण पढ़ लिए किन्तु वहाँ तो छः द्रव्य, नौ पदार्थ और तीन काल का कोई कथन नहीं है । इस श्लाक का उत्तर तो वही दे सकता है जो सर्वज्ञ हो और जिसे समस्त पदार्थों का पूरा ज्ञान हो । हन्द्रभूति ने अपनी कमजोरी को छिपाते हुए कहा कि तुम्हें क्या, चलो। तुम्हारे गुरु को ही इसका अर्थ बताता हूं। उनके दोनों भाई और पाँचसौ शिष्य उनके साथ चल दिये। जब उन्होंने समवशरण के निकट, मानस्तम्भ देखा तो उनका मान खुदबखुद इस तरह नष्ट होगया जिस तरह सूर्य को देख कर अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ते थे त्यों-त्यों अधिक शान्ति और वीतरागता अनुभव करते थे । समवशरण की महिमा को देख कर वह चकित रह गये । महावीर भगवान् की वीतरागता से प्रभावित होकर बड़ी विनय के साथ उनको नमस्कार किया । इसके दोनों भाई और पांचसौ चेलों ने जो इन्द्रभूति से भी अधिक प्रभावित हो चुके थे अपने गुरु को नमस्कार करते देख कर उन सभी ने भगवान महावीर को नमस्कार किया । इन्द्रभूति गौतम ने बड़ी विनय के साथ भगवान् महावीर से पूछा कि इस विशाल मण्डप की रचना मनुष्य के तो वश का कार्य नहीं है, फिर इसको किस ने १. जैन धर्म प्रकाश, (ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी) पृ० १६५ । [ ३३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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