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________________ महावीर स्वामी का प्रथम आहार मगध देश के कुल ग्राम के सम्राट कुल' के यहाँ ७२ घण्टे के उपवास के बाद हुआ। जो निर्ग्रन्थ मुनियों और सच्चे साधुओं को भक्तिपूर्वक विधि के साथ शुद्ध आहार देते हैं और जिन के ऐसे नियम हैं कि मुनि के आहार का समय गुजर जाने पर भोजन करेंगे, उनके पाप इस प्रकार धुल जाते हैं जिस प्रकार जल से लहू धुल जाता है । राज-सुख और इन्द्र-पद की प्राप्ति सहज से हो जाती है। संसारी सुख तो साधारण बात है, भोग भूमि के मनोवाञ्छित फल भी आप से आप मिल जाते हैं । सहस्रभट सुभट ने नियम ले रखा था कि सम्यगदृष्टि साधुओं के आहार का समय जब गुजर जाया करेगा तब भोजन किया करूंगा। इस नियम का मीठा फल यह हुआ कि वह कुवेरकान्त नाम का इतना भाग्यशाली सेठ हुआ कि जिसकी देव भी सेवा करते थे । पिछले जन्म में इच्छारहित साधुओं को आहार कराने के कारण ही हरिषेण छः खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट हुआ । जब त्यागियों और साधुओं के आहार कराने से इतना पुण्य-लाभ है, तो जिस के घर तीर्थकर भगवान् का आहार हो उसके पुण्य का क्या ठिकाना ? स्वर्ग तो उसी भव में मिल हो जाता है और मोक्ष जाने की ऐसी छाप लग जाती है कि थोड़े ही भव धारण करके वह अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है । वीर स्वामी के आहार को अपने अवधिज्ञान से जान कर स्वर्ग के देवों तक ने भी पंच अतिशय किये । १. उत्तर पुराण, पृ० ६११ । २. पं० सूरजभान वकील : महावीर भगवान् पृ० ४ ।। ३. गृहकर्मणापि निचितं कर्मविौष्टि खलु गृहदिमुक्तानां । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।। ११४ ।। -रत्नकरण्डश्रावकाचार | [ ३०१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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