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________________ आत्मा निर्मल है, इसका स्वभाव परम पवित्र है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, चिन्ता, भय, खेद आदि १४ अंतरङ्ग तथा स्त्रो, पुत्र, दास-दासी, धन सम्पत्ति आदि इस प्रकार के बहिरङ्ग परिग्रहों से शुद्ध है । शरीर महा मलीन है । इसका स्वभाव ही अपवित्र है, इसके द्वारों से हर समय मल-मूत्र, खून, पीप आदि टपकते हैं । अनादि काल से अनेक बार शरीर को खूब धोया, परन्तु क्या कोयले को धोने से उसकी कालिमा नष्ट हो जाती है ? यदि मैं अपनी आत्मा को कषायों और परिग्रहों से एक बार भी शुद्ध कर लिया होता तो कर्मरूपी मल को दूर करके हमेशा के लिये शुद्धचित् रूप होजाता । जिन्होंने अपनी आत्मा को सांसारिक पदार्थों की मोह-ममता से शुद्ध कर लिया, वे अजर-अमर हो गये, मोक्ष प्राप्त कर लिया, आवागमन के फंदे से मुक्त होगये । यदि मैं भी पर पदार्थों की लालसा छोड़ दूं तो आठों कर्म नष्ट होकर सहज में अविनाशक सुखों के स्थान - मोक्ष को अवश्य प्राप्त कर सकता हूँ । ---6 - आस्रव भावना २६० ] मोह नींद के जोर, जगवासी घमैं सदा । कर्म चोर चहुं ओर, सरबस लूटें सुध नहीं' ॥ न सारे संसार में मेरा कोई बुरा या भला नहीं कर सकता और मैं ही किसी दूसरे का बुरा या भला कर सकता हूं । दूसरे का बुरा तब होगा जब उसके पाप कर्म हृदय में आवेंगे, केवल मेरे १. Heated with various thoughts on Earth, Death _and_Birth; electrified alround thou knew Thou ever suffered Ah! Chains of Desire Plundered ye, and not. -7th. Meditation of Enflow of karmas. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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