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________________ जिस प्रकार म्यान में रहने वाली तलवार म्यान से अलग है। उसी प्रकार शरीर में रहने वाली रामा शरीर से भिन्न हैं I आत्मा अलग है, शरीर अलग है, ग्रात्मा चेतन, ज्ञान रूप है, शरीर जड़, ज्ञान शून्य है । आत्मा अमूर्तिक है, शरीर मूर्तिमान है । आत्मा जीव ( जानदार ) शरीर अजीव ( बेजानदार ) है | आत्मा स्वाधीन है और शरीर इन्द्रियों द्वारा पराधीन है। आत्मा निज है, शरीर पर है। आत्मा राग-द्वेष, क्रोध-मान, भय-खेद रहित है, शरीर को सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास ऋदि हजारों दुःख लगे हैं । इस जन्म पहले भी यही आत्मा थी और इस जन्म के बाद नरक स्वर्ग, अर्हन्त अथवा मोक्ष प्राप्त करने पर भी यही श्रात्मा रहेगी । आत्मा नित्य है, शरीर नष्ट होने वाला है, आत्मा के चोला बदलने पर यह शरीर यहीं पड़ा रह जाता है । जब प्रत्यक्ष में अपना दिखाई देने वाला यह शरीर ही अपना नहीं, तो स्पष्ट अलहदा दिखाई देनेवाले स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि कैसे अपने हो सकते हैं ? जब उनका संयोग सढ़ा नहीं रहता तो इनकी मोह-ममता क्या ? जिस प्रकार किरायेदार मकान से मोह न रख कर किराये के मकान में रहता है, उसी प्रकार जीव को शरीर का दास न बनकर शरीर से जप-तप करके अपनी आत्मा की मलीनता दूर करके शुद्धचित् रूप होना ही उचित है । ६ - अशुचि भावना दिप चाम चादर मढी हाड़ पिंजरा देह, भीतर या सम जगत में श्रौर नहीं घिन गेह' ॥ १. Ercased within the film of Skin, Body-a Skeleton of Fiesh and bone; Nowhere is seen songly a thing Throughout Worldly zone. the — 6th A editation of the Impurity of Bedy. [ २८६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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