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________________ सदा आनन्द ही आनन्द प्राप्त करने के हेतु सारे संसार में व्यवहार रूप से केवल अर्हन्त भगवान् की शरण है । ३ – संसार-भावना दाम बिना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देखो छान' ॥ यह संसार दुःखों की खान है । संसारी सुख खाँड में लिपटा हुआ जहर है । तलबार की धार पर लगा हुआ मधु है । इन से सच्चे सुख की प्राप्ति मानना ऐसा है, जैसे विष भरे सर्प के मुख से अमृत झड़ने की आशा । जिस प्रकार हिरण यह भूल कर कि कस्तूरी इसकी अपनी नाभि में है उसकी खोज में मारा-मारा फिरता है, इसी प्रकार जीव यह भूल कर कि अविनाशक सुख तो इस की अपनी निज आत्मा का स्वाभाविक गुण है, सुख और शान्ति की खोज संसारी पदार्थों में करता है । यदि संसार में सुख होता तो छयानवें हजार स्त्रियों को भोगने वाला, बत्तीस हजार मुकुट बन्ध राजाओं का सम्राट, जिनकी रक्षा देव करते हैं, ऐसे नौनिधि और चौदह रत्नों का स्वामी, छः खण्ड ( समस्त संसार ) का प्रजापति चक्रवर्ती राजसुखों को लात मार कर संसार को क्यों त्यागते ? जब संसारी पदार्थों में सच्चा आनन्द नहीं, तो इनकी इच्छा और मोह-ममता क्यों ? १. Pain to the poor without wealth, And rich in the wit of Desire; Oh! Shall ye see amidst the world Nay joice, but anxiety sphere. - 3rd . Meditation of Worldly Condition. [ २८७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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