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________________ मैं रात दिन किये गये अशुभ कर्मों को सामयिक द्वारा नष्ट करता और साथ ही अपनी निन्दा करता था कि आज मुझ से ये पाप क्यों होगये ? इस प्रकार मैं शुभ क्रियाओं द्वारा धर्म का पालन करता था और दूसरा की रुचि धर्म में कराता था। ____ एक दिन में परिवार सहित तीर्थंकर श्री क्षमङ्कर जी की बन्दना को उनके समोशरण में गया। भगवान् के मुख से संसार का भयानक स्वरूप सुन कर मेरे हृदय में वीतरागता आगई और छः खण्ड के राज्य तथा चक्रवर्ती विभूतियों को त्याग कर जिन दीक्षा लेकर जैन साधु होगया' । तप और त्याग के प्रभाव से मैं सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में उत्तम विभूतियों का धारी सूर्यप्रभ नाम का महान् देव हुआ। इन्द्रपद मनुष्य जन्म के तप का प्रभाव स्वर्ग में भी रहा, धर्म प्राप्ति के लिये मैं रत्नमयी जिन प्रतिमाओं के दर्शनों को जाता था, उन की भक्तिपूर्वक अनमोल रत्नों से पूजा करता था। नन्दीश्वर द्वीप में भी जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा किया करता था। तीर्थंकरों तथा मुनीश्वरों की भक्ति में आनन्द लेता था । कण्ठ से झरने वाले अमृत का आहार करता था। तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणक उत्साह से मनाता था, जिस के पुण्य फल से स्वर्ग की आयु समाप्त होने पर मैं भारत क्षेत्र में छत्राकार नगर के महाराजा नन्दिवर्धन की वीरवती नाम की रानी से नन्द नाम का राजकुमार हुआ। धर्म में अधिक रुचि होने के कारण श्रावकों के बारह व्रतों को अच्छी तरह पालन करता था। श्री प्रोष्टिल नाम के मुनि के उपदेश से वैराग्य आगया तो राजपाट को लात मार कर उनके निटक दीक्षा लेकर जैन साधु हो गया | और केवली भगवान् १-५. महावीर पुराण (कलकत्ता), पृ० ४०.४१ । २८२ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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