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शीते वाते सन्निपाते यमालयगतेऽपि च । गुंजिकाष्ठमात्रेण सर्वज्वरनिषूदनः ||४|| सूचिका प्रदातव्यः मृतो जीवति तत्क्षणात् ॥५॥
टीका - पारे की भस्म, तांबे को भस्म, शुद्ध विषनाग एक-एक भाग तथा शुद्ध गंधक ३ भाग इन सब को एकत्रित करके नेगड़, गनयारी, चित्रक, बड़ी कटहली, छोटी कटहली, पाताल गरुड़ी, इंद्रायन इन सब के रस से तीन तीन अलग अलग भावना देवे तब यह अग्निकुमार रस तैयार हो जाता है। यह पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ रस शीत में, में, सन्निपात में ६ रती के प्रमाण देने से एवं तीव्र हैजा में भी मृत प्राय हो जाने पर भी इससे लाभ हो जाता है ।
७२ ज्वरे लघुज्वरांकुशः
रसगंधकाम्राणां प्रत्येकं चैकभागकं । खल्वे दिग्गज भागांशं देयं च धूर्तबीजयोः ॥१॥ मातुलुंगरसेनैव मर्दयेद्वा रसं बुधैः । कासमर्दकतोयेन सिद्धोऽयं जायते रसः ॥२॥ निंबमज्जाद करसे: वल्लू देयं त्रिदोषजित् । ज्वरे दध्योदनं पथ्यं शाकतुंडिफलं ददेत् ॥३॥ लघु ज्वरांकुशो नाम पूज्यपादेन भाषितः ।
वैद्य-सार
टीका- शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म इन तोनों को एक एक भाग लेकर तथा
चार भाग धतूरे के शुद्ध बीज लेकर सब को खल में डाल बिजोरा नीबू के रस में मर्दन करे और सोंदन के रस में मर्दन एवं सुखा कर रख रती की मात्रा से नीम की मोंगी के और अदरख के रस के त्रिदोषज ज्वर में लाभ होवे। इसका पथ्य दही भात है तथा कौवाटोंडी का शाक भी दे सकते हैं। यह सब प्रकार के ज्वरों में दे सकते हैं। यह पूज्यपाद स्वामी ने कहा है ।
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लेवे, इसको तीन तीन साथ दिया जाय तो
७३ - स्फोटादौ त्रिलोक-चूड़ामणिरसः
पारदं टंकणं तुत्थं विषं लांगुलिकं तथा । पुत्रजीवस्य मज्जानि गंधकं कर्षमात्रया ॥१॥ देवदाल्या रसैर्मद्यः त्रिशुली समर्दितः । विष्णुक्रांता नागदंती धन्त रनागकेशरैः ॥२॥
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