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________________ वैद्य-सार गंधार्ध मरिचं चूर्णमेकीकृत्य हिमाषकं । लेहयेन्मधुना सार्ध नागवल्लीरसेन सह ॥७॥ पथ्यं तु प्रतियामं स्यादभुक्ते विषपद्भवेत् । एसो पजेश्वरः ख्यातः क्षयपर्वतभेवकः ॥८॥ उत्तमो राजयोगोऽयं पूज्यपादेन भाषितः । टीका-एक तोला खपरिया का सत्व लेकर छह माशे शुद्ध सोने को गला कर उसमें डाल दे; फिर दोनों को चूर्गा कर छः निष्क (१॥ तोला) पारागंधक तथा अकोलक १॥ तोला मालकांगनी, १॥ तोला शुद्ध तवकिया हरताल तथा अनकभस्म, कांत लौहभस्म, ताम्रभस्म चार-चार निष्क (१ तोला) तथा शुद्ध मोती और शुद्ध प्रवाल पाठ-पाठ निक (२ तोला) लेकर तथा लौहभस्म २ निष्क एवं सुहागा शुद्ध आठ निष्क (२ तोला) नील और कुटकी २ तोला, शुद्ध पीली गठीली कौड़ी २० तोला, शुद्ध शोशा भस्म तीन निष्क लेकर सबको एकत्र कर चांगेरी के रस में एक प्रहर तक घोंटे, फिर सबको टिकिया बनाकर संपुट में बंदकर एक हाथ का गड्डा करके तुष की अग्नि के द्वारा पुट देवे और फिर जंबीरी नींबू के रस की भावना देवे । इस प्रकार पाठ पुट देवे फिर आठ पुट के बाद अंबोरी नींबू के रस की भावना देकर जंगली कंडों से १ गजपुट देवे। फिर सब को चूर्ण करके चूर्ण से प्राधा शुद्ध आंवलासार गंधक लेवे, तथा गंधक से अाधो काली मिर्च लेकर सबको एकत्र कर तीन तीन माशे शहद और पान के रस के साथ प्रातःकाल एक बार सेवन करे एवं इस दवाई के सेवन करने पर प्रत्येक पहर के बाद पथ्यपूर्वक भोजन करे। यदि इस औषध के सेवन करने पर पथ्य सेवन न किया जायगा तो यह औषध विष के समान काम करेगी। यह वनेश्वर रस क्षय अर्थात् राजयक्ष्मा-रूप पर्वत का नाश करने के लिये वन के समान है। यह उत्तम राजयोग पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ है। ५-शीतज्वरे शीतांकुशरसः तुत्थमेकं वयं तालं शिलाचैव चतुर्गुणं । धत्तूरस्य रसैमर्थः कुक्कुटीपुटपाचितः ॥१॥ शीतांकुशरसो नाम शीतज्वरनिवारणः । शीतज्वरविषनोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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