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________________ वैद्य - सार १२५ - ज्वरादौ प्राणेश्वररसः भस्म सूतं यदा कृत्वा मात्तिकं चाभ्रसत्त्वकम् । शुल्वभस्मापि संयोज्य भागसंख्याक्रमेण च || तालमूलीरसं दत्त्वा शुद्धगंधकमिश्रितम् ! मर्दयेत् खल्वमध्ये च नितरां यामयोद्वयम् ॥ निक्षिप्य काचकूप्यां च मुद्रया कूपिकां तथा । खटिकामृदं समादाय लेपयेत् सप्तवारकम् ॥ विपरीतं परिस्थाप्य पूरयेत् बालुकामयम् | यंत्र' प्रज्वालयेद्यामं चतुरो वह्निना पुनः ॥ सिध्यते रसराजेन्द्रो बलिपूजाभिरर्चयेत् । अनुपानं तदा देयं मरिचं नागरं तथा ॥ त्रिचारं पंचलवणं राम ं चित्रमूलकम् । अजमोद जीरकं चैव शतपुष्पाचतुष्टयम् ॥ चूर्णयित्वा तथा सर्व भक्षयेच्चानुवासरं । रसराजेन्द्रनामायं विख्यातो प्राणिशांतिकृत् ॥ अयं प्राणेश्वरो नाम प्राणिनां शांतिकारकः । प्राणनिर्गमकालेऽपि रक्षकः प्राणिनां तथा । भक्षयेत् पखण्डेन कटूष्णेनापि वारिणा ॥ ज्वरे त्रिदोषजे घोरे सन्निपाते च दारुगो ! प्लीहायों गुल्मवाते च शूले च परिणामजे ॥ मन्दाग्नौ ग्रहणीरोगे ज्वरे चैवातिसारके अयं प्राणोश्वरो नाम भवेन्मृत्युविवर्जितः । सर्वरोगविषघ्नोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥ • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 忍 टोका - पारे की भस्म १ भाग, सोना मक्खी की भस्म २ भाग, अभ्रक की भस्म ३ भाग, तामे की भस्म ४ भाग, ये सब लेकर मुसली के स्वरस में घोंटे तथा उसमें १ भाग शुद्ध गन्धक मिलावे, खलमें ६ घण्टे तक बराबर घोंटे, सुखा कर कांच की शीशी में रख कर मुद्रा देकर बन्द करे । उसके ऊपर खड़िया मिट्टी से सात कपड़मिट्टी करे और सुखाव, फिर सुखा कर उसके चारों तरफ बालुका से पूरण करे, १२ घण्टे बराबर आंच जलावे, तब रसों में राजा यह प्रागोश्वर रस सिद्ध हो जाता है। अब सिद्ध हो जाय तब देवतापूजा वगैरह धार्मिक क्रिया करे। इस औषधि के सेवन करनेके बाद नीचे लिखा- चूर्णा अनुपानरूप सेवन करें। www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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