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सामायिक का उद्देश्य
करने पर सामायिक-क्रिया के द्वारा कभी पूर्ण समभाव भी प्राप्त किया जा सकता है और आत्मा पूर्णता को पहुँच सकता है । जब आत्मा में पूर्ण समभाव होगा तब श्रात्मा जीवन-मुक्त होकर परमात्मा बन जावेगा ।
इन्द्रिय और मन की चंचलता एकदम से नहीं मिट सकती । इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। जब इन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर आकर्षित हों और अपने साथ मन को भी उस ओर घसीटने लगें, तब इन्द्रियों को रोकने के लिए ज्ञान-ध्यान आदि शुभ एवं प्रशस्त क्रिया का अवलम्बन लेना चाहिए । ऐसा करने पर इन्द्रियों विषयों की ओर जाने से रुक जावेंगी और मन भी रुक जावेगा । छद्मस्थ जीवों के मन वचन के योग का निरोध स्थायी रूप से नहीं हो सकता । श्री प्रज्ञापनादि सूत्रों में भगवान महावीर ने मन वचन के योग की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त की बताई है । छद्मस्थ जीवों के मन और वाणी के परमाणु अन्तर्मुहूर्त्त से अधिक समय तक एक स्थिति में नहीं रह सकते । वे तो पलटते ही रहते हैं। श्री गीताजी में भी मन की दुर्दमनता और उसके निरोध के विषय में कहा है
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमथि बलवद्दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सु दुष्करम् ॥
अर्थात् हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला एवं
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