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सामायिक का उद्देश्य होती है और पाप क्यों लगता है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि जीव का नाश तो कभी नहीं होता, परन्तु जीव ने अपना जीवत्व व्यक्त करने के लिये जो सामग्री एकत्रित की है, और जीव की जिस सामग्री को प्राण कहा जाता है, उस सामग्री को नष्ट करना या धक्का पहुँचाना-यानी प्राण नष्ट करना या प्राण को आघात पहुँचाना ही हिंसा है। इसके लिए कहा भी है कि
प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा। इसका भावार्थ यह है कि ऐसा विचार करना, ऐसी भाषा बोलना या ऐसा कार्य करना कि जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों को आघात पहुँचे, वह हिंसा है और ऐसी हिंसा ही 'प्राणातिपात' पाप है ।
२ मृषावाद यानी झूठ बोलना-जो बात जैसी है या जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा न कह कर विपरीत कहना, बताना
और वास्तविकता को छिपाना 'मृषावाद' है। ऐसा करने से कई प्रकार के अनर्थ होते हैं इसलिये यह भी पाप है।
३ अदत्ता दान यानी चोरी-जो पदार्थ अपना नहीं किन्तु दूसरे का है वह सचित अचित या मिश्र पदार्थ उस पदार्थ को मालिक से छिपा कर गुप्त रीति से ग्रहण करना चोरी है। अथवा दूसरे के अधिकार की वस्तु पर जबरदस्ती अपना अधिकार जमा लेना भी चोरी है। क्योंकि उसकी आत्मा दुःख पाती है इस तरह की चोरी 'अदत्ता दान' नाम का पाप है।
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