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सामायिक व्रत
स्वरूप प्रकट करते हैं और आस्मा को समभाव में स्थापित करते हैं। इसलिए सामायिक में किये जाने वाले चारों प्रकार के ध्यान का रूप, एक कवि के कथनानुसार संक्षेप में बताया जाता है । वह कवि कहता है
अक्षर पद को अर्थ रूप ले ध्यान में, जे ध्यावे इम मन्त्र रूप इक तान में। ध्यान पदस्थ जु नाम कह्यो मुनिराज ने,
जे यामे व्ह लोन लहें निज काज ने ॥ अर्थात्-पंच परमेष्टि मन्त्र के पैंतीस अक्षरों को भिन्न-भिन्न रूप में विकल्प कर उनका ध्यान करना और पंच-परमेष्टि मन्त्र के पाँचों पद का भिन्न-भिन्न अर्थ विचार कर उन अर्थ में लौ लगाना, अथवा पंच-परमेष्टि मन्त्र के स्वर व्यंजन का वर्गीकरण करके अपने नाभि-मंडल में मन्त्र के पदों से कमल का रूप कल्पना, एक पद को मध्य में रखकर शेष चार पद को चारों दिशा में रखकर उस कमल में आत्मा को स्थित करना, इत्यादि पदस्थ ध्यान है। या पिण्डस्थ ध्यान के माँहि, देह विषे स्थित आतम ताहि । चिन्ते पंच धारणा धारि, निज आधीन चित्त को पारि ॥ ___अर्थात्-इस देह में रहे हुए अखण्ड अविनाशी शाश्वत अमूर्त और सिद्ध स्वरूप आत्मा का पृथ्वी अग्नि वायु जल और तत्त्वरूपवती इन पाँच तत्व की कल्पना द्वारा ध्यान करना, पिंडस्थ ध्यान है । पाँच तत्त्व की कल्पना में किस किस प्रकार की कल्पना की जाती है, यह संक्षेप में नीचे बताया जाता है।
पृथ्वी को कल्पना करने में द्वीप समुद्र आदि काध्यान करता हुआ स्वयंभूरमण समुद्र का ध्यान करके अपने को स्वयंभूरमण समुद्र
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