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विषय-प्रवेश
देता है। इस व्रत का विशेष सम्बन्ध बाह्य जगत से है। इस व्रत का प्रचलित नाम 'अतिथि संविभाग' है, लेकिन शास्त्रों में इस व्रत का नाम 'अहा संविभाग' बताया गया है। इस नाम का यह भाव भी है कि अपने खान-पान के पदार्थों के प्रति ममत्व या गृद्धि भाव न रख कर उनका भी विभाग करना और साधु आदि को देने की भावना रखना । यद्यपि इस व्रत के पाठ में मुख्यता साधु को ही है लेकिन आशय बहुत ही गहन है । लक्ष्यार्थ बहुत विशाल है । इस प्रकार यह व्रत, श्रावक की उदारता और विशाल भावना का बाह्य जगत को परिचय देता है।
सारांश यह है कि ये चारों शिक्षा व्रत श्रावक के जीवन को पवित्र उन्नत तथा आदर्श बनाते हैं। साथ ही श्रावक को, उपस्थित सांसारिक प्रसङ्गों में न फंसने देकर संसार व्यवहार के प्रति जल-कमलवत बनाये रखते हैं। इसलिए इन व्रतों का जितना भी अधिक प्राचरण किया जावे, उतना हो अधिक लाभ है।
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