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अतिथि संविभाग व्रत
कैसे आ सकता था ! इसी के अनुसार श्रावक का लक्ष्य तो है पंच महाव्रतधारी उत्कृष्ट पात्र को दान देना, लेकिन ऐसे महात्माओं को वह अतिथि रूप में अपने यहाँ तभी पा सकता है और तभी उन्हें दान भी दे सकता है, जब वह सामान्य अतिथि का सत्कार करता रहेगा और उन्हें दान देता रहेगा। ऐसा करते रहने पर, उसे कभी उन महात्माओं को दान देने का भी सुयोग मिल सकता है, जो दान के उत्कृष्ट पात्र हैं और जिन्हें दान देने पर महान् फल प्राप्त हो सकता है। इसलिए श्रावक का कर्त्तव्य है कि वह सभी अतिथि का यथा शक्ति सत्कार करे । श्रावक के लिये शास्त्र में यह विशेषण आया है कि उसका अभंग द्वार सदा खुला ही रहता है ।
कोई कह सकता है कि 'श्रावक का बारहवाँ व्रत पंच महाव्रतधारी मुनिराजों को आहारादि देने से हो निपजता है, इसलिए शास्त्र में उन्हीं को दान देने का विधान है। दूसरे को दान देने का विधान नहीं है, किन्तु निषेध पाया जाता है । उदाहरण के लिए उपासक दशाङ्ग सूत्र में आनन्द श्रावक के वर्णन में आया है कि आनन्द श्रावक ने यह प्रतिज्ञा की कि अब से मुझे अन्य तीर्थों को, अन्य तीर्थियों के देवों को और अन्य तीर्थियों द्वारा ग्रहीत जैन - साधु-लिंग को वन्दन नमस्कार करना, उनका आदर-सत्कार करना, उनके बोले बिना उनसे बोलना और उन्हें अशनादि देना
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