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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
११० था, किन्तु जीव, अजीव के स्वरूप और पुण्य, पाप के फल का जानकार था। इस जानकारी के कारण न तो उसे सुख के समय हर्ष होता था न दुःख के समय खेद होता था। वह आस्रव, संवर आदि तत्त्वों को भी समझता था, इसलिए यथा संभव संवर और निर्जरा के कारणों का ही व्यवहार करता था। वह मोक्ष प्राप्ति का इच्छुक था, इससे अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों में पौषध किया करता था। वह किस प्रकार पौषध करता था, यह ऊपर बताया ही जा चुका है। वह धर्म से सम्बन्धित कामों को नौकरों से नहीं कराता था, किन्तु स्वयं करता था। इसीलिए उसने श्राप ही पौषधशाला का परिमार्जन किया। इसी प्रकार धर्म करने के लिए जिस सादगी की आवश्यकता है, वह सादगी भी उसमें थी। इसका प्रमाण है दर्भ का संथारा। जो धार्मिक कार्यों में इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ रहता है और सादगी रखता है, वही धर्म का पालन भी कर सकता है और वही मोक्ष भी प्राप्त करता है। ऐसे ही व्यक्ति की धार्मिकता का प्रभाव दूसरे लोगों पर भी पड़ता है।
पौषध ब्रत स्वीकार करने के पश्चात् क्या करना चाहिए, यह बात सामायिक व्रत का वर्णन करते हुए बताई जा चुकी है। फिर भी थोड़े में यहाँ उन बातों का पुनः वर्णन अप्रासङ्गिक न होगा।
पौषध व्रत स्वीकार करने वाले श्रावक का जीवन, जितने समय के लिए पोषध व्रत स्वीकार किया है उतने समय के लिए
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