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________________ १३ ) नहीं है । क्योंकि सदियों से हमारे जीवन के अणु-अणु में विष व्याप्त हो गया है । हमें काया कञ्चन जैसी बनानी है, किन्तु जब तक इस विष का नाश न हो, तत्र तक कायापलट का कोई भी प्रयोग सफल नहीं हो सकता । हमारे विष की यह परंपरा लम्बे समय से पीढ़ियों से चली आई है । कोई भली अथवा बुरी प्रवृत्ति इसी प्रकार परंपरा में चली आती हैं। आज हमारे विद्यार्थियों, युवकों, युवतियों में कुछ बुराइयाँ कुछ लोग देख रहे हैं वे हमारी खुद की देन हैं, यह हम भूल जाते हैं । सासू को सताने वाली बहू यह भूल जाती है कि "मैं भी कल सासू होने वाली हूँ | मैं अपनी सासू को नहीं सता रही हूँ. किन्तु अपनी बहू को सताने की विद्या सिखा रही हूँ" । मानव अनुकरण करने वाला प्राणी है । वह यह नही देखता है कि, यह जो कुछ कर रहा है, वह किसलिए कर रहा है । वह तो यही देखता है कि, यह ऐसा करता है, इसलिए मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए । पाश्चात्य संस्कृति को हमारे जिन देशवासियों ने अपना लिया है, उन्होंने कब सोचा था कि यह वेश, यह खान पान, यह रहन सहन उस देश के लिए उपयोगी हो सकता है, हमारे लिए नहीं ? फिर भी शौक से, मित्रों को राजी करने के लिए, अपना महत्व दिखलाने के लिए या किसी भी कारण से पश्चिम की बातों को स्वीकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035259
Book TitleShikshan Aur Charitra Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Granthmala
Publication Year1951
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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